कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
मैं- वही हाल है भाई, भुगत रहा हूँ। ऐसा मालूम होता है, बदन में जान ही नहीं है।
खान.- हजूर को कम-से-कम एक बोतल साथ रख लेनी चाहिए थी। जेब में डाल लेते।
मैं- इतनी ही तो भूल हुई, नहीं रोना काहे का था।
खान.- नींद भी न आती होगी?
मैं- कैसी नींद, दम लबों पर है, न जाने रात कैसे गुजरेगी।
मैं चाहता था, खानसामा अपनी तरफ से मेरी अग्नि शांत करने का प्रस्ताव करे, जिसमें मुझे लज्जित न होना पड़े। पर खानसामा भी चंट था। बोला- अल्लाह का नाम लेकर सो जाइए, नींद कब तक न आयेगी।
मैं- नींद तो न आयेगी। हाँ, मर भले ही जाऊँगा। क्या साहब बोतलें गिनकर रखते हैं? गिनते तो क्या होंगे?
खान.- अरे हुजूर, एक ही मूजी है। बोतल पूरी नहीं होती, तो उस पर निशान बना देता है। मजाल है कि एक बूँद भी कम हो जाय।
मैं- बड़ी मुसीबत है, मुझे तो एक गिलास चाहिए। बस, इतना ही चाहता हूँ कि नींद आ जाय। जो इनाम कहो, वह दूँ।
खान.- इनाम तो हुजूर देंगे ही; लेकिन खौफ यही है कि कहीं भाँप गया, तो फिर मुझे जिंदा न छोड़ेगा।
मैं- यार, लाओ, अब ज्यादा सब्र की ताब नहीं है।
ख़ान.- आपके लिए जान हाजिर है; पर एक बोतल 10 रु. में आती है। मैं कल किसी बेगार से मँगाकर तादाद पूरी कर दूँगा।
मैं- एक बोतल थोड़े ही पी जाऊँगा।
खान.- साथ लेते जाइएगा हुजूर ! आधी बोतल खाली मेरे पास रहेगी, तो उसे फौरन शुबहा हो जायगा। बड़ा शक्की है, मेरा मुँह सूँघा करता है कि इसने पी न ली हो।
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