कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
मार के आगे भूत भागता है ! मुझे प्रति क्षण यह शंका होती थी कि कहीं यह लोकोक्ति चरितार्थ न हो जाय। कहीं खानसामा खुल न पड़े। नहीं तो फिर मेरी खैर नहीं ! सनद छीने जाने का, चोरी का मुकदमा चल जाने का, अथवा जज साहब से तिरस्कृत किये जाने का इतना भय न था; जितना साहब के पदाघात का लक्ष्य बनने का। जालिम हंटर लेकर दौड़ न पड़े। यों मैं इतना दुर्बल नहीं हूँ, हृष्ट-पुष्ट और साहसी मनुष्य हूँ। कालेज में खेल-कूद के लिए पारितोषिक पा चुका हूँ। अब भी बरसात में दो महीने मुग्दर फेर लेता हूँ; लेकिन उस समय भय के मारे बुरा हाल था। मेरे नैतिक बल का आधार पहले ही नष्ट हो चुका था। चोर में बल कहाँ- मेरा मान, मेरा भविष्य, मेरा जीवन खानसामा के केवल एक शब्द पर निर्भर था- केवल एक शब्द पर ! किसका जीवन-सूत्र इतना क्षीण, इतना जीर्ण, इतना जर्जर होगा !
मैं मन-ही-मन प्रतिज्ञा कर रहा था- शराबियों की तोबा नहीं, सच्ची, दृढ़ प्रतिज्ञा- कि इस संकट से बचा तो फिर शराब न पीऊँगा। मैंने अपने मन को चारों ओर से बाँध रखने के लिए, उसके कुतर्कों का द्वार बंद करने के लिए एक भीषण शपथ खायी।
मगर हाय रे दुर्देव ! कोई सहायक न हुआ। न गोवर्द्धनधारी ने सुध ली, न नृसिंह भगवान् ने। वे सब सत्ययुग में आया करते थे। न प्रतिज्ञा कुछ काम आयी; न शपथ का कुछ असर हुआ। मेरे भाग्य, या दुर्भाग्य में जो कुछ बदा था, वह होकर रहा। विधना ने मेरी प्रतिज्ञा सुदृढ़ रखने के लिए शपथ को यथेष्ट न समझा।
खानसामा बेचारा अपनी बात का धनी था। थप्पड़ खाये, ठोकर खायी, दाढ़ी नुचवायी, पर न खुला, न खुला। बड़ा सत्यवादी, वीर पुरुष था। मैं शायद ऐसी दशा में इतना अटल न रह सकता। शायद पहले ही थप्पड़ में उगल देता। उसकी ओर से मुझे जो घोर शंका हो रही थी, वह निर्मूल सिद्ध हुई। जब तक जिऊँगा, उस वीरात्मा का गुणानुवाद करता रहूँगा।
पर मेरे ऊपर दूसरी ही ओर से वज्रपात हुआ।
खानसामा पर जब मार-धाड़ का कुछ असर न हुआ, तो साहब उसके कान पकड़े हुए डाक-बँगले की तरफ चले। मैंने उन्हें आते देखा चटपट सामने बरामदे में जा बैठा और ऐसा मुँह बना लिया मानो कुछ जानता ही नहीं। साहब ने खानसामा को लाकर मेरे सामने खड़ा कर दिया। मैं भी उठकर खड़ा हो गया। उस समय यदि कोई मेरे हृदय को चीरता, तो रक्त की एक बूँद भी न निकलती।
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