कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
तैमूर ने युवक के सामने जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे आँखों से लगाता हुआ बोला- मेरे जवान दोस्त, तुम सचमुच खुदा के हबीब हो, मैं वह गुनाहगार हूँ, जिसने अपनी जहालत में हमेशा अपने गुनाहों को सवाब समझा, इसलिए कि मुझसे कहा जाता था, तेरी जात बेऐब है। आज मुझे यह मालूम हुआ कि मेरे हाथों इस्लाम को कितना नुकसान पहुँचा। आज से मैं तुम्हारा ही दामन पकड़ता हूँ। तुम्हीं मेरे खिज्र, तुम्हीं मेरे रहनुमा हो। मुझे यकीन हो गया कि तुम्हारे ही वसीले से मैं खुदा की दरगाह तक पहुँच सकता हूँ।
यह कहते हुए उसने युवक के चेहरे पर नजर डाली, तो उस पर शर्म की लाली छायी हुई थी। उस पर कठोरता की जगह मधुर संकोच झलक रहा था।
युवक ने सिर झुकाकर कहा- यह हुजूर की कदरदानी है, वरना मेरी क्या हस्ती है।
तैमूर ने उसे खींचकर अपनी बगल के तख्तु पर बिठा दिया और अपने सेनापति को हुक्म दिया, सारे तुर्क कैदी छोड़ दिये जाएं उनके हथियार वापस कर दिये जाएं और जो माल लूटा गया है, वह सिपाहियों में बराबर बांट दिया जाए। वजीर तो इधर इस हुक्म की तामील करने लगा, उधर तैमूर हबीब का हाथ पकडे हुए अपने खेमें में गया और दोनों मेहमानों की दावत का प्रबन्ध करने लगा। और जब भोजन समाप्त हो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथा रो-रोकर कह सुनाई, जो आदि से अंत तक मिश्रित पशुता और बर्बरता के कृत्यों से भरी हुई थी। और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया कि वह ईश्वरीय आदेश का पालन कर रहा है। वह खुदा को कौन मुंह दिखाएगा। रोते-रोते हिचकियां बँध गई।
अंत में उसने हबीब से कहा- मेरे जवान दोस्त। अब मेरा बेड़ा आप ही पार लगा सकते हैं। आपने राह दिखाई है तो मंजिल पर पहुँचाइए। मेरी बादशाहत को अब आप ही संभाल सकते हैं। मुझे अब मालूम हो गया कि मैं उसे तबाही के रास्ते पर लिए जाता था। मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप उसकी वजारत कबूल करें। देखिए, खुदा के लिए इन्कार न कीजिएगा, वरना मैं कहीं का नहीं रहूँगा।
यजदानी ने अरज की-हुजूर इतनी कदरदानी फरमाते हैं, तो आपकी इनायत है, लेकिन अभी इस लडके की उम्र ही क्या है। वजारत की खिदमत यह क्या अंजाम दे सकेगा। अभी तो इसकी तालीम के दिन हैं।
इधर से इनकार होता रहा और उधर तैमूर आग्रह करता रहा। यजदानी इनकार तो कर रहे थे, पर छाती फूली जाती थी। मूसा आग लेने गये थे, पैगम्बरी मिल गई। कहाँ मौत के मुँह में जा रहे थे, वजारत मिल गई, लेकिन यह शंका भी थी कि ऐसे अस्थिर चित्त क्या ठिकाना? आज खुश हुए, वजारत देने को तैयार हैं, कल नाराज हो गए तो जान की खैरियत नहीं। उन्हें हबीब की लियाकत पर भरोसा था, फिर भी जी डरता था कि वीराने देश में न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। दरबारवालों में षडयंत्र होते ही रहते हैं। हबीब नेक है, समझदार है, अवसर पहचानता है; लेकिन वह तजरबा कहाँ से लाएगा, जो उम्र ही से आता है।
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