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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


अक्सर ऊँचे घरानों की महिलाओं से उसको मिलने-जुलने का अवसर मिलता था। उनके मुख से उनकी करुण कथा सुनकर वह वैवाहिक पराधीनता से और भी घृणा करने लगती थी। और यजदानी उसकी स्वाधीनता में बिलकुल बाधा न देता था। लड़की स्वाधीन है, उसकी इच्छा हो, विवाह करे या क्वांरी रहे, वह अपनी-आप मुख्तार है। उसके पास पैगाम आते, तो वह साफ जवाब दे देता– मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता, इसका फैसला वही करेगी।

यद्यपि एक युवती का पुरुष वेष में रहना, युवकों से मिलना-जुलने, समाज में आलोचना का विषय था, पर यजदानी और उसकी स्त्री दोनों ही को उसके सतीत्व पर विश्वास था, हबी‍ब के व्य‍वहार और आचार में उन्हें कोई ऐसी बात नजर न आती थी, जिससे उन्हें किसी तरह की शंका होती। यौवन की आंधी और लालसाओं के तूफान में वह चौबीस वर्षों की वीरबाला अपने हृदय की सम्परति लिए अटल और अजेय खड़ी थी, मानों सभी युवक उसके सगे भाई हैं।

कुस्तुनतुनिया में कितनी खुशियां मनाई गई, हबीब का कितना सम्मान और स्वागत हुआ, उसे कितनी बधाईयां मिलीं, यह सब लिखने की बात नहीं शहर तबाह हुआ जाता था। संभव था आज उसके महलों और बाजारों से आग की लपटें निकलती होतीं। राज्य और नगर को उस कल्पनातीत विपत्ति से बचानेवाला आदमी कितने आदर, प्रेम श्रद्धा और उल्लास का पात्र होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस पर कितने फूलों और कितने लाल-जवाहरों की वर्षा हुई इसका अनुमान तो कोई कवि ही कर सकता है और नगर की महिलाएं हृदय के अक्षय भंडार से असीसें निकाल-निकालकर उस पर लुटाती थीं और गर्व से फूली हुई उसका मुँह निहारकर अपने को धन्य मानती थीं। उसने देवियों का मस्तक ऊँचा कर दिया।

रात को तैमूर के प्रस्ताव पर विचार होने लगा। सामने गद्देदार कुर्सी पर यजदानी था- सौम्य, विशाल और तेजस्वी। उसकी दाहिनी तरफ उसकी पत्नी थी, ईरानी लिबास में, आंखों में दया और विश्वास की ज्योति भरे हुए। बायीं तरफ उम्मुतुल हबीब थी, जो इस समय रमणी-वेष में मोहिनी बनी हुई थी, ब्रह्मचर्य के तेज से दीप्त।

यजदानी ने प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा– मैं अपनी तरफ से कुछ नहीं कहना चाहता, लेकिन यदि मुझे सलाह देने का अधिकार है, तो मैं स्पष्ट कहता हूँ कि तुम्हें इस प्रस्ताव को कभी स्वीकार न करना चाहिए, तैमूर से यह बात बहुत दिन तक छिपी नहीं रह सकती कि तुम क्या हो। उस वक्त क्या परिस्थिति होगी, मैं नहीं कहता। और यहां इस विषय में जो कुछ टीकाएं होंगी, वह तुम मुझसे ज्यादा जानती हो। यहाँ मैं मौजूद था और कुत्सव को मुँह न खोलने देता था पर वहाँ तुम अकेली रहोगी और कुत्सास को मनमाने, आरोप करने का अवसर मिलता रहेगा।

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