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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


''दूसरा यह कि यह व्यक्तियों की स्वाधीनता में बाधक है। यह स्त्रीव्रत और पातिव्रत्य का स्वाँग रचकर हमारी आत्मा को संकुचित कर देता है। हमारी बुद्धि के विकास में जितनी रुकावट इस प्रथा ने डाली है, उतनी और किसी भौतिक या दैविक क्रांति से भी नहीं हुई। इसने मिथ्या आदर्शों को हमारे सामने रख दिया और आजतक हम उन्हीं पुरानी सड़ी हुई, लज्जाजनक, पाशविक लकीरों को पीटते जाते हैं। व्रत केवल एक निरर्थक बंधन का नाम है। इतना महत्त्वपूर्ण नाम देकर हमने उस क़ैद को धार्मिक रूप दे दिया है। पुरुष क्यों चाहता है कि स्त्री उसको अपना ईश्वर, अपना सर्वस्व समझे? केवल इसलिए कि वह उसका भरण-पोषण करता है? क्या स्त्री का कर्त्तव्य केवल पुरुष की संपत्ति के लिए वारिस पैदा करना है, उस संपत्ति के लिए जिस पर, हिंदू-नीतिशास्त्र के अनुसार, पति के देहांत के वाद उसका कोई अधिकार नहीं रहता। समाज की यह सारी व्यवस्था, सारा संगठन संपत्ति-रक्षा के आधार पर हुआ है।

इसने संपत्ति को प्रधान और व्यक्ति को गौण कर दिया है। हमारे ही वीर्य से उत्पन्न संतान हमारी कमाई हुई जायदाद का भोग करे, इस मनोभाव में कितनी स्वार्थांधता, कितना दासत्व छिपा हुआ है इसका कोई अनुमान नहीं कर सकता। इस क़ैद में जकड़ी हुई समाज की संतान यदि आज घर में, देश में, संसार में, अपने कूर स्वार्थ लिए रक्त की नदियाँ बहा रही है तो क्या आश्चर्य है। मैं इस वैवाहिक प्रथा को सारी बुराइयों का मूल समझता हूँ।''

भुवन चकित हो गया। मैं खुद चकित हो गई। विनोद ने इस विषय पर मुझसे कभी इतनी स्पष्टता से बातचीत न की थी। मैं यह तो जानती थी कि वह साम्यवादी हैं, दो एक बार इस विषय पर उनसे बहस भी कर चुकी हूँ पर वैवाहिक प्रथा के वे इतने विरोधी हैं यह मुझे ना मालूम था। भुवन के चेहरे से ऐसा प्रकट होता था कि उन्होंने ऐसे दार्शनिक विचारों की गंध तक नहीं पाई। जरा देर के बाद बोले- ''प्रोफ़ेसर साहब, आपने तो मुझे एक बड़े चक्कर में डाल दिया। आखिर आप इस प्रथा की जगह कोई और प्रथा रखनी चाहते हैं, या विवाह की आवश्यकता ही नहीं समझते। जिस तरह पशु-पक्षी आपसे मिलते हैं, वही हमें भी करना चाहिए?''

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