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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


विनोद ने तुरंत उत्तर दिया- ''बहुत कुछ। पशु-पक्षियों में सभी का मानसिक विकास एक-सा नहीं है। कुछ ऐसे हैं जो जोड़े के चुनाव में कोई विचार नहीं रखते, कुछ ऐसे हैं जो एक बार बच्चे पैदा करने के बाद अलग हो जाते हैं और कुछ ऐसे हैं जो जीवन-पर्यंत एक साथ रहते हैं। कितनी ही भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं। मैं मनुष्य होने के नाते उसी श्रेणी को श्रेष्ठ समझता हूँ जो जीवन-पर्यंत एक साथ रहते हैं, मगर स्वेच्छा से। उनके यहाँ कोई कैद नहीं, कोई सजा नहीं। दोनों अपने-अपने चारे-दाने की फ़िक्र करते हैं। दोनों मिलकर रहने का स्थान बनाते हैं, दोनों साथ बच्चों का पालन करते हैं। उनके बीच में कोई तीसरा नर या मादा आ ही नहीं सकता, यहाँ तक कि उनमें से जब एक मर जाता है तो दूसरा मरते दम तक फुट्ठैल रहता है। यह अंधेर मनुष्य-जाति ही में है कि स्त्री ने किसी दूसरे पुरुष से हँसकर बात की और उसके पुरुष की छाती पर साँप लोटने लगा, खून-खराबे के मँसूबे सोचे जाने लगे। पुरुष ने किसी दूसरी स्त्री की ओर रसिक नेत्रों से देखा और अर्धांगिनी ने त्योरियाँ बदलीं, पति के प्राण लेने को तैयार हो गई। यह सब क्या है? ऐसा मनुष्य-समाज सभ्यता का किस मुँह से दावा कर सकता है।''

भुवन ने सिर सहलाते हुए कहा- ''मगर मनुष्यों में भी तो भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं। कुछ लोग हर महीने एक नया जोड़ा खोज निकालेंगे।''

विनोद ने हँसकर कहा- ''लेकिन यह इतना आसान काम न होगा। या तो वह ऐसी स्त्री चाहेगा जो संतान का पालन स्वयं कर सकती हो या उसे एक मुश्त सारी रक़म अदा करनी पड़ेगी।'

भुवन भी हँसे- ''आप अपने को किस श्रेणी में रखेंगे?''

विनोद इस प्रश्न के लिए तैयार न थे। था भी बेढंगा-सा सवाल। झेंपते हुए बोले- ''परिस्थितियाँ जिस श्रेणी में ले जाएँ। मैं स्त्री और पुरुष दोनों के लिए पूर्ण स्वाधीनता का हामी हूँ। कोई कारण नहीं है कि मेरा मन किसी नवयौवना की ओर आकर्षित हो और वह भी मुझे चाहे, तो मैं समाज और नीति के भय से उसकी ओर ताक न सकूँ। मैं इसे पाप नहीं समझता।''

भुवन अभी कुछ उत्तर न देने पाए थे कि विनोद उठ खड़े हुए। कॉलेज के लिए देर हो रही थी। तुरंत कपड़े पहने और चल दिए। हम दोनों दीवानखाने में आकर बैठे और बातें करने लगे।

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