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प्रेमचन्द की कहानियाँ 20

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9781

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग


पण्डित अलोपीदीन स्तम्भित हो गए। गाड़ीवालों में हलचल मच गई। पण्डितजी के जीवन में कदाचित् यह पहला अवसर था कि पण्डितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ीं। बदलूसिंह आगे बढ़ा, किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके। पण्डितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादार करते कभी न देखा था विचार किया, यह अभी उद्दण्ड लड़का है। माया-मोह के जाल में नहीं पड़ा। अल्हड़ है, झिझकता है। बहुत दीन भाव से बोले- बाबू साहब! ऐसा न कीजिए, हम मिट जायँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके क्या हाथ आएगा? हम किसी तरह से बाहर थोड़े ही हैं।

वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा- हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।

अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसका हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य को कड़ी चोट लगी। किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले- लालाजी, एक हजार के नोट बाबू साहब को भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।

वंशीधर ने गरम होकर कहा- एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।

धर्म की बुद्धिहीन दृढ़ता और देव-दुर्लभ त्याग पर धन बहुत झुँझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पन्द्रह और पन्द्रह से बीस तक नौबत पहुँची; किन्तु धर्म अलौकिक वीरता के साथ इस बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खड़ा था।

अलोपीदीन निराश होकर बोले- अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।

वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलूसिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पण्डित अलोपीदिन की ओर बढ़ा। पण्डितजी घबराकर दो-तीन कदम पीछे हट गए। अत्यन्त दीनता से बोले- बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, पच्चीस हजार पर निपटारा करने को तैयार हूँ।

‘‘असम्भव बात है।’’

‘‘तीस हजार पर?’’

‘‘किसी तरह भी सम्भव नहीं।’’

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