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प्रेमचन्द की कहानियाँ 20

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9781

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग


यहाँ तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ देख पड़ता था। वह न्याय का दरबार था, परन्तु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किन्तु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहाँ पक्षपात हो, वहाँ न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया! डिप्टी मैजिस्ट्रेट ने अपनी तजबीज में लिखा- पण्डित अलोपीदीन के विरुद्ध दिये गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह एक बड़े भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना से बाहर है कि उन्होंने थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दरोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि उनकी उद्दण्डता और अविचार के कारण एक भलेमानुष को कष्ट झेलना पड़ा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किन्तु नमक के मुहकमे की बढ़ी हुई नमकहलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।

वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े। पण्डित अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले। स्वजन बान्धवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा, उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी। जब वंशीधर बाहर निकले, तो चारों ओर से उनके ऊपर व्यंगवाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। किन्तु इस समय एक-एक कटु वाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्ज्वलित कर रहा था। कदाचित् इस मुकदमे में सफल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वत्ता, लम्बी-चौड़ी उपाधियाँ, बड़ी-बड़ी दाढ़ियाँ और ढीले चोगे एक भी सच्चे आदर के पात्र नहीं हैं।

वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था। उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा। कार्यपरायणता का दण्ड मिला। बेचारे भग्न-हृदय, शोक-खेद से व्यथित घर को चले। बूढ़े मुंशीजी तो पहले से ही कुड़बुड़ा रहे थे कि चलते-चलते इस लड़के को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। बस, मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठें और वहाँ बस, वही सूखी तनख्वाह। हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे, लेकिन जो काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में हो चाहे अँधेरा, मस्जिद में अवश्य दिया जलायँगे। खेद ऐसी समझ पर। पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया। इसके थोड़े ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुँचे और बूढ़े पिताजी ने यह समाचार सुना, तो सिर पीट लिया। बोले- जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लूँ। बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहाँ से टल न जाते, तो अवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता! वृद्धा माता को भी दु:ख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएँ मिट्टी में मिल गईं। पत्नी ने तो कई दिन तक सीधे मुँह से बात भी नहीं की।

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