कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 20 प्रेमचन्द की कहानियाँ 20प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग
वह उनके साथ सुमन वाटिका में चुहलें करती। उनके लिए फूलों के हार गूँथती और उनके गले में हाथ डालकर कहती- ''प्यारे! देखना ये फूल मुरझा न जावें, इन्हें सदा ताज़ा रखना।’’ वह चाँदनी रात में उनके साथ नाव पर बैठकर झील की सैर करती, और उन्हें प्रेम के राग सुनाती। यदि उन्हें बाहर से आने में जरा भी देर हो जाती तो वह मीठा-मीठा उलाहना देती और उन्हें निर्दयी तथा निष्ठुर कहती। उनके सामने वह स्वयं हँसती, उसकी आँखें हँसती और आँखों का काजल हँसता था, किंतु आह! जब वह अकेली होती तो उसका चंचल चित्त उड़कर उसी कुंड के तट पर जा पहुँचता। कुंड का वह नीला-नीला पानी, उस पर तैरते हुए कमल और मौलसरी की वृक्ष-पंक्तियों का सुंदर दृश्य आँखों के सामने आ जाता। उमा मुस्कराती और नज़ाकत से लचकती हुई आ पहुँचती, तब रसीले योगी की मोहनी छवि आँखों में आ बैठती और सितार के सुललित सुर गूँजने लगते-
तब वह एक दीर्घ निःश्वास लेकर उठ बैठती और बाहर निकलकर पिंजर में चहकते हुए पक्षियों के कलरव में शांति प्राप्त करती। इस भाँति यह स्वप्न तिरोहित हो जाता।
इस तरह कई महीने बीत गए। एक दिन राजा हरिश्चंद्र प्रभा को अपनी चित्रशाला में ले गए। उसके प्रथम भाग में ऐतिहासिक चित्र थे। सामने ही शूरवीर महाराणा प्रतापसिंह का चित्र नज़र आया। मुखारविंद से वीरता की ज्योति स्फुटित हो रही थी। तनिक और आगे बढ़कर दाहिनी ओर स्वामिभक्त जगमल, वीरवर सांगा और दिलेर दुर्गादास विराजमान थे। बाईं ओर उदार भीमसिंह बैठे हुए थे। राणा प्रताप के सम्मुख महाराष्ट्र केसरी वीर शिवाजी का चित्र था। दूसरे भाग में कर्मयोगी कृष्ण और मर्यादा पुरुषोत्तम राम विराजते थे। चतुर चित्रकारों ने चित्र-निर्माण में अपूर्व कौशल दिखलाया था। प्रभा ने प्रताप के पादपद्मों को चूमा और वह कृष्ण के सामने देर तक नेत्रों में प्रेम और श्रद्धा के आँसू भरे, मस्तक झुकाए खड़ी रही। उसके हृदय पर इस समय कलुषित प्रेम का भय खटक रहा था। उसे मालूम होता था, यह उन महापुरुषों के चित्र नहीं, उनकी पवित्र आत्माएँ हैं। उन्हीं के चरित्र से भारतवर्ष का इतिहास गौरवांवित है। वे भारत के बहुमूल्य जातीय रत्न, उच्च कोटि के जातीय स्मारक, और गनभेदी जातीय तुमुल-ध्वनि हैं। ऐसी उच्च आत्माओं के सामने खड़े होते उसे संकोच होता था। आगे वही, दूसरा भाग सामने आया। यहीं ज्ञानमय बुद्ध योगसाधना में बैठे हुए देख पड़े। उनकी दाहिनी ओर शास्त्रज्ञ शंकर थे और बाएँ दार्शनिक दयानंद। एक ओर शांति-पथगामी कबीर और भक्त रामदास यथायोग्य खड़े थे। एक दीवार पर गुरुगोविंद अपने देश और जाति के नाम पर बलि चढ़ने वाले दोनों बच्चों के साथ विराजमान थे। दूसरी दीवार पर वेदांत की ज्योति फैलाने वाले स्वामी रामतीर्थ और विवेकानंद विराजमान थे। चित्रकारों की योग्यता एक-एक अवयव से टपकती थी। प्रभा ने इनके चरणों पर मस्तक टेका। वह उनके सामने सिर न उठा सकी। उसे अनुभव होता था कि उनकी दिव्य ओंखें उसके दूषित हृदय में चुभी जाती हैं।
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