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प्रेमचन्द की कहानियाँ 20

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9781

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग


मैंने चिढ़ कर कहा- मौत की!

बुढ़िया- तुम्हारे नसीबों में तो अभी जिन्दगी के बड़े-बड़े सुख भोगने लिखे हैं। अंधेरी रात गुजर गई, आसमान पर सुबह की रोशनी नज़र आ रही है।

मैंने हँसकर कहा- अंधेरे में भी तुम्हारी आँखें इतनी तेज हैं कि नसीबों की लिखावट पढ़ लेती हैं?

बुढ़िया- आँखों से नहीं पढ़ती बेटी, अक्ल से पढ़ती हूँ। धूप में चूँड़े नहीं सफेद किये हैं। तुम्हारे बुरे दिन गये और अच्छे दिन आ रहे हैं। हँसो मत बेटी, यही काम करते इतनी उम्र गुजर गई। इसी बुढ़िया की बदौलत जो नदी में कूदने जा रही थीं, वे आज फूलों की सेज पर सो रही है, जो जहर का प्याला पीने को तैयार थीं, वे आज दूध की कुल्लियाँ कर रही हैं। इसीलिए इतनी रात गये निकलती हूँ कि अपने हाथों किसी अभागिन का उद्धार हो सके, तो करुँ। किसी से कुछ नहीं माँगती, भगवान् का दिया सब कुछ घर में है, केवल यही इच्छा है अपने से जहाँ तक हो सके, दूसरों का उपकार करूँ। जिन्हें धन की इच्छा है, उन्हें धन, जिन्हे संतान की इच्छा है, उन्हें संतान, बस और क्या कहूँ, वह मंत्र बता देती हूँ कि जिसकी जो इच्छा हो, वह पूरी हो जाये।

मैंने कहा- मुझे न धन चाहिए, न संतान। मेरी मनोकामना तुम्हारे बस की बात नहीं है।
बुढ़िया हँसी- बेटी, जो तुम चाहती हो, वह मैं जानती हूँ। तुम वह चीज़ चाहती हो, जो संसार में होते हुए स्वर्ग की है, जो देवताओं के वरदान से भी ज्यादा आनंदप्रद है, जो आकाश-कुसुम है, गूलर का फूल है और अमावस का चाँद है। लेकिन मेरे मंत्र में वह शक्ति है, जो भाग्य को भी संवार सकती है। तुम प्रेम की प्यासी हो। मैं तुम्हें उस नाव पर बैठा सकती हूँ, जो प्रेम के सागर में, प्रेम की तंरगों पर क्रीड़ा करती हुई तुम्हें पार उतार दे।

मैंने उत्कंठित होकर पूछा- माता, तुम्हारा घर कहाँ है?

बुढ़िया- बहुत नजदीक है बेटी। तुम चलो तो मैं अपनी आँखों पर बैठाकर ले चलूँ। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि यह कोई आकाश की देवी है। उसके पीछे-पीछे चल पड़ी।

आह! वह बुढ़िया, जिसे मैं आकाश की देवी समझती थी, नरक की डाइन निकली। मेरा सर्वनाश हो गया। मैं अमृत खोजती थी, विष मिला। निर्मल स्वच्छ प्रेम की प्यासी थी, गंदे विषाक्त नाले में गिर पड़ी। वह वस्तु न मिलनी थी, न मिली। मैं सुशीला का–सा सुख चाहती थी, कुलटाओं की विषय-वासना नहीं। लेकिन जीवन-पथ में एक बार उलटी राह चलकर फिर सीधे मार्ग पर आना कठिन है।

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