कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 20 प्रेमचन्द की कहानियाँ 20प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग
हरिश्चंद्र ने कहा- ''यह तो नहीं?''
प्रभा की आखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर घूमने लगा। वह खड़ी न रह सकी। बैठ गई और हताश बोली- ''हाँ, यही पद था।’’
फिर उसने कलेजा मजबूत करके पूछा- ''आपको कैसे मालूम हुआ? ''
हरिश्चंद्र बोले- ''वह योगी मेरे यहाँ अक्सर आया-जाया करता है। मुझे भी उसका गाना पसंद है। उसी ने मुझे यह हाल बताया था, किंतु वह तो कहता था कि राजकुमारी ने मेरे गानों को बहुत पसंद किया और पुन: आने के लिए आदेश किया।''
प्रभा को अब सच्चा क्रोध दिखाने का अवसर मिल गया। वह बिगड़कर बोली- ''यह बिलकुल झूठ है। मैंने उससे कुछ नहीं कहा।''
हरिश्चंद्र- बोले- ''यह तो मैं पहिले ही समझ गया था कि यह उन महाशय की चालाकी है। डींग मारना गवैयों की आदत है, परंतु इसमें तो तुम्हें इंकार नहीं कि उसका गाना बुरा न था?''
प्रभा बोली- ''ना। अच्छी चीज़ को बुरा कौन कहेगा।’’
हरिश्चंद्र ने पूछा- ''फिर सुनना चाहो तो उसे बुलवाऊँ। सिर के बल दौड़ा आएगा।''
क्या उनके दर्शन फिर होंगे? इस आशा से प्रभा का मुखमंडल विकसित हो गया, परंतु इन कई महीनों की लगातार कोशिश से जिस बात को भुलाने में वह किंचिंत् सफल हो चली थी, उसके फिर नवीन हो जाने का भय हुआ। बोली- ''मेरा इस समय गाना सुनने को जी नहीं चाहता।’’
राजा ने कहा- ''यह मैं न मानूँगा कि तुम और गाना नहीं सुनना चाहती। मैं उसे अभी बुलाए लाता हूँ।’’
यह कहकर राजा हरिश्चंद्र तीर की तरह कमरे से बाहर निकल आए। प्रभा उन्हें रोक न सकी। वह बड़ी चिंता में डूबी खड़ी थी। हृदय में खुशी और रंज की लहरें बारी-बारी से उठती थीं। मुश्किल से 10 मिनट बीते होंगे कि उसे सितार के मस्ताने सुर के साथ योगी की रसीली तान सुनाई दी-
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