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प्रेमचन्द की कहानियाँ 21

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9782

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग


सुन्दर और हँसमुख हेमवती इस मुहब्बत में लिपटी हुई तकरीर को बजाहिर बहुत गौर से सुनती रही। इसके बाद जान-बूझकर अनजान बनते हुए बोली- मैंने तो यह सोचकर मंजूर कर लिया था कि कपड़े सब पहले ही के रक्खे हुए हैं, ज्यादा सामान की जरूरत न होगी, सिर्फ चन्द घंटों की तकलीफ है और एहसान मुफ्त। डाक्टरों को नाराज करना भी तो अच्छी बात नहीं है। मगर अब न जाऊँगी। मैं अभी उनको अपनी मजबूरी लिखे देती हूँ। सचमुच क्या फायदा, बेकार की उलझन।

यह सुनकर कि कपड़े सब पहले के रक्खे हुए हैं, कुछ ज्यादा खर्च न होगा, अक्षयकुमार के दिल पर से एक बड़ा बोझ उठ गया। डाक्टरों को नाराज करना भी तो अच्छी बात नहीं। यह जुमला भी मानी से खाली न था। बाबू साहब पछताये कि अगर पहले से यह हाल मालूम होता तो काहे को इस तरह रुखा-सूखा उपदेशक बनना पड़ता। गर्दन हिलाकर बोले- नहीं-नहीं मेरी जान, मेरा मंशा यह हरगिज नहीं कि तुम जाओ ही मत। जब तुम निमंत्रण स्वीकार कर चुकी हो तो अब उससे मुकरना इन्सानियत से हटी हुई बात मालूम होती है। मेरी सिर्फ यह मंशा थी कि जहाँ तक मुमकिन हो, ऐसे जलसों से दूर रहना चाहिये।

मगर हेमवती ने अपना फैसला बहाल रक्खा- अब मैं न जाऊँगी। तुम्हारी बातें गिरह में बांध लीं।

दूसरे दिन शाम को अक्षयकुमार हवाखोरी को निकले। आनन्द बाग उस वक्त जोबन पर था। ऊंचे-ऊंचे सरो और अशोक की कतारों के बीच, लाल बजरी से सजी हुई सड़क ऐसी खूबसूरत मालूम होती थी कि जैसे कमल के पत्तों में फूल खिला हुआ है या नोकदार पलकों के बीच में लाल मतवाली आंखें जेब दे रही हैं। बाबू अक्षयकुमार इस क्यारी पर हवा के हल्के-फुल्के ताजगी देनेवाले झोंकों का मजा उठाते हुए एक सायेदार कुंज में जा बैठे। यह उनकी खास जगह थी। इस इनायतों की बस्ती में आकर थोड़ी देर के लिए उनके दिल पर फूलों के खिलेपन और पत्तों की हरियाली का बहुत ही नशीला असर होता था। थोड़ी देर के लिए उनका दिल भी फूल की तरह खिल जाता था। यहाँ बैठे उन्हें थोड़ी देर हुई थी कि उन्हें एक बूढ़ा आदमी अपनी तरफ आता हुआ दिखायी दिया। उसने सलाम किया और एक मोहरदार बन्द लिफाफा देकर गायब हो गया। अक्षय बाबू ने लिफाफा खोला और उसकी अम्बरी महक से रुह फड़क उठी। खत का मजमून यह था:

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