कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
मोटे - 'मैं तुमसे एक नहीं, हजार बार कह चुका कि मेरे कामों में मत बोला करो। तुम नहीं समझ सकतीं कि मैंने इतना विलम्ब क्यों किया। तुम्हें ईश्वर ने इतनी बुद्धि ही नहीं दी। जल्दी जाने से अपमान होता है। यजमान समझता है, लोभी है, भुक्खड़ है। इसलिए चतुर लोग विलम्ब किया करते हैं, जिसमें यजमान समझे कि पंडित जी को इसकी सुधि ही नहीं है, भूल गये होंगे। बुलाने को आदमी भेजें। इस प्रकार जाने में जो मान-महत्त्व है, वह मरभुखों की तरह जाने में क्या कभी हो सकता है? मैं बुलाने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कोई न कोई आता ही होगा। लाओ थोड़ी फंकी। बालकों को खिला दी है न? '
सोना- 'उन्हें तो मैंने साँझ ही को खिला दी थी।'
मोटे- 'कोई सोया तो नहीं? '
सोना- 'आज भला कौन सोयेगा? सब भूख-भूख चिल्ला रहे थे, तो मैंने एक पैसे का चबेना मँगवा दिया। सब के सब ऊपर बैठे खा रहे हैं। सुनते नहीं हो, मार-पीट हो रही है।'
मोटेराम ने दाँत पीस कर कहा, 'जी चाहता है कि तुम्हारी गरदन पकड़ कर ऐंठ दूँ। भला, इस बेला चबेना मँगाने का क्या काम था? चबेना खा लेंगे, तो वहाँ क्या तुम्हारा सिर खायेंगे? छि: छि:! जरा भी बुद्धि नहीं!'
सोना ने अपराध स्वीकार करते हुए कहा, 'हाँ, भूल तो हुई; पर सब के सब इतना कोलाहल मचाये हुए थे कि सुना नहीं जाता था।'
मोटे- 'रोते ही थे न, रोने देती। रोने से उनका पेट न भरता; बल्कि और भूख खुल जाती।'
सहसा एक आदमी ने बाहर से आवाज दी , 'पंडित जी, महारानी बुला रही हैं, और लोगों को ले कर जल्दी चलो।'
पंडित जी ने पत्नी की ओर गर्व से देख कर कहा, 'देखा, इसे निमंत्रण कहते हैं। अब तैयारी करनी चाहिए।
बाहर आ कर पंडित जी ने उस आदमी से कहा, तुम एक क्षण और न आते, तो मैं कथा सुनाने चला गया होता। मुझे बिलकुल याद न थी। चलो, हम बहुत शीघ्र आते हैं।'
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