कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 23 प्रेमचन्द की कहानियाँ 23प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग
कुंअर- जब तक हम जिन्दा हैं भाई साहब, आपको कोई तिरछी नजर से नहीं देख सकता। जाकर छोटे साहब से कहिए, कुंअर साहब की हालत अच्छी नहीं, मैं अब नहीं जा सकता। इसमें मेरी तरफ से भी उनका दिल साफ हो जाएगा और आपकी दोस्ती देखकर आपकी और इज्जत करने लगेगा।
खां- अब वह इज्जत करें या न करें, जब आप इतना इसरार कर रहे हैं तो मैं भी इतना बे-मुरौवत नहीं हूं कि आपको छोड़कर चला जाऊं। यह तो हो ही नहीं सकता। जरा देर के लिए घर चला गया, उसका तो इतना तावान देना पड़ा, नैनीताल चला जाऊं तो शायद कोई आपको उठा ही ले जाय।
कुंअर- मजे से दो-चार दिन जल्से देखेंगे, नैनीताल में यह मजे कहां मिलते। व्यास जी, अब तो यों नहीं बैठा जाता। देखिए, आपके भण्डार में कुछ हैं, दो-चार बोतलें निकालिए, कुछ रंग जमे।
4. पशु से मनुष्य
दुर्गा माली डाक्टर मेहरा बार-ऐट ला के यहाँ नौकर था। पाँच रुपये मासिक वेतन पाता था। उसके घर में स्त्री और दो-तीन छोटे बच्चे थे। स्त्री पड़ोसियों के लिए गेहूँ पीसा करती थी। दो बच्चे, जो समझदार थे, इधर-उधर से लकड़ियाँ, गेहूँ उपले चुन लाये थे। किंतु इतना यत्न करने पर भी वे बहुत तकलीफ में रहते थे। दुर्गा, डाक्टर साहब की नजर बचा कर बगीचे से फूल चुन लेता और बाजार में पुजारियों के हाथ बेच दिया करता था। कभी-कभी फलों पर भी हाथ साफ किया करता। यही उसकी ऊपरी आमदनी थी। इससे नोन-तेल आदि का काम चल जाता था। उसने कई बार डाक्टर महोदय से वेतन बढ़ाने के लिए प्रार्थना की, परन्तु डाक्टर साहब नौकर की वेतन-वृद्धि को छूत की बीमारी समझते थे, जो एक से अनेकों को ग्रस लेती है। वे साफ कह दिया करते कि, ‘‘भाई मैं तुम्हें बाँधे तो हूँ नहीं। तुम्हारा निर्वाह यहाँ नहीं होता; तो और कहीं चले जाओ, मेरे लिए मालियों का अकाल नहीं है।''
दुर्गा में इतना, साहस न था कि वह लगी हुई रोजी छो़ड़ कर नौकरी ढूँढ़ने निकलता। इससे अधिक वेतन पाने की आशा भी नहीं। इसलिए वह इसी निराशा में पड़ा हुआ जीवन के दिन काटता और अपने भाग्य को रोता था।
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