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प्रेमचन्द की कहानियाँ 23

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9784

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग


शीरीं- पूछती तो हूं पैदल चले जाने में क्या हरज है? गाड़ीवाला एक रुपये से कम न लेगा।

गुल- (हंसकर) हुक्काम किराया नहीं देते। उसकी हिम्मत है कि मुझसे किराया मांगे! चालान करवा दूं।

शीरीं- तुम तो हाकिम भी नहीं हो, तुम्हें वह क्यों ले जाने लगा!

गुल- हाकिम कैसे नहीं हूं? हाकिम के क्या सींग-पूंछ होती है, जो मेरे नहीं है? हाकिम का दोस्त हाकिम से कम रोब नहीं रखता। अहमक नहीं हूं कि सौ काम छोड़कर हुक्काम की सलामी बजाया करता हूं। यह इसी की बरकत है कि पुलिस माल दीवानी के अहलकार मुझे झुक-झुककर सलाम करते हैं, थानेदार ने कल जो सौगात भेजी थी, वह किसलिए? मैं उनका दामाद तो नहीं हूं। सब मुझसे डरते हैं।

इतने में महरी एक तांगा लाई। खां साहब ने फौरन साफा बांधा और चले। शीरी ने कहा- अरे, तो पान तो खाते जाओ!

गुल- हां, लाओ हाथ में मेहदी भी लगा दो। अरी नेकबख्त, हुक्काम के सामने पान खाकर जाना बेअदबी है।

शीरीं- आओगे कब तक? खाना तो यहीं खाओगे!

गुल- तुम मेरे खाने की फ्रिक न करना, शायद कुंअरसाहब के यहां चला जाऊं। कोई मुझे पूछे तो कहला देना, बड़े साहब से मिलने गये हैं।

खां साहब आकर तांगे पर बैठे। तांगेवाले ने पूछा- हुजूर, कहां चलूं?

गुल- छोटे साहब के बंगले पर। सरकारी काम से जाना है।

तांगे- हुजूर को वहां कितनी देर लगेगी?

गुल—यह मैं कैसे बता दूं, यह तो हो नहीं सकता कि साहब मुझसे बार-बार बैठने को कहे और मैं उठकर चला आऊं। सरकारी काम है, न जाने कितनी देर लगे। बड़े अच्छे आदमी हैं बेचारे। मजाल नहीं कि जो बात कह दूं, उससे इनकार कर दें। आदमी को गरूर न करना चाहिए। गरूर करना शैतान का काम है। मगर कई थानेदारों से जवाब तलब कर चुका हूं। जिसको देखा कि रिआया को ईजा पहुचाता है, उसके पीछे पड़ जाता हूं।

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