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प्रेमचन्द की कहानियाँ 24

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9785

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग


चैतन्यदास मणिकर्णिका घाट पर अपने सम्बन्धियों के साथ बैठे चिता-ज्वाला की ओर देख रहे थे। उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। पुत्र-प्रेम एक क्षण के लिए अर्थ-सिद्धांत पर गालिब हो गया था। उस विरक्तावस्था में उनके मन में यह कल्पना उठ रही थी- सम्भव है, इटली जाकर प्रभुदास स्वस्थ हो जाता। हाय! मैंने तीन हजार का मुंह देखा और पुत्र रत्न को हाथ से खो दिया। यह कल्पना प्रतिक्षण सजग होती थी और उनको ग्लानि, शोक और पश्चात्ताप के बाणों से बेध रही थी। रह-रहकर उनके हृदय में बेदना की शूल सी उठती थी। उनके अन्तर की ज्वाला उस चिता-ज्वाला से कम दग्धकारिणी न थी। अक्स्मात उनके कानों में शहनाइयों की आवाज आयी। उन्होंने आंख ऊपर उठाई तो मनुष्यों का एक समूह एक अर्थी के साथ आता हुआ दिखाई दिया। वे सब के सब ढोल बजाते, गाते, पुष्प आदि की वर्षा करते चले आते थे। घाट पर पहुँचकर उन्होने अर्थी उतारी और चिता बनाने लगे।

उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया। बाबू साहब ने पूछा- किस मुहल्ले में रहते हो?

युवक ने जवाब दिया- हमारा घर देहात में है। कल शाम को चले थे। ये हमारे बाप थे। हम लोग यहां कम आते है, पर दादा की अन्तिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका घाट पर ले जाना।

चैतन्यदास- येसब आदमी तुम्हारे साथ हैं?

युवक- हाँ और लोग पीछे आते हैं। कई सौ आदमी साथ आये हैं। यहां तक आने में सैकड़ों उठ गये पर सोचता हूँ कि बूढे पिता की मुक्ति तो बन गई। धन और है किसलिए।

चैतन्यदास- उन्हें क्या बीमारी थी?

युवक ने बड़ी सरलता से कहा, मानो वह अपने किसी निजी सम्बन्धी से बात कर रहा हो- बीमारी का किसी को कुछ पता नहीं चला। हरदम ज्वर चढा रहता था। सूखकर कांटा हो गये थे। चित्रकूट हरिद्वार प्रयाग सभी स्थानों में ले लेकर घूमे। वैद्यों ने जो कुछ कहा उसमें कोई कसर नहीं की। इतने में युवक का एक और साथी आ गया। और बोला- साहब, मुंह देखी बात नहीं, नारायण लड़का दे तो ऐसा दे। इसने रुपयों को ठीकरे समझा। घर की सारी पूंजी पिता की दवा दारू में स्वाहा कर दी। थोड़ी सी जमीन तक बेच दी पर काल बली के सामने आदमी का क्या बस है।

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