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प्रेमचन्द की कहानियाँ 24

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9785

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग


‘रुपये हाथ में आने दो।’

‘तो यह क्यों नहीं कहते कि भेजना ही नहीं चाहते?’

भेजना चाहता हूँ किन्तु अभी हाथ खाली हैं। क्या तुम नहीं जानतीं?’

‘बैंक में तो रुपये हैं? जायदाद तो है? दो-तीन हजार का प्रबन्ध करना ऐसा क्या कठिन है?’

चैतन्यदास ने पत्नी को ऐसी दृष्टि से देखा मानो उसे खा जायेगें और एक क्षण के बाद बोले- बिलकुल बच्चों की सी बातें करती हो। इटली में कोई संजीवनी नहीं रक्खी हुई है जो तुरन्त चमत्कार दिखायेगी। जब वहां भी केवल प्रारब्ध ही की परीक्षा करनी है तो सावधानी से कर लेंगे। पूर्व पुरुषों की संचित जायदाद और रक्खे हुए रुपये मैं अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं कर  सकता।

तपेश्वरी ने डरते-डरते कहा- आखिर, आधा हिस्सा तो प्रभुदास का भी है?

बाबू साहब तिरस्कार करते हुए बोले- आधा नहीं, उसमें मैं अपना सर्वस्व दे देता, जब उससे कुछ आशा होती, वह खानदान की मर्यादा में और ऐश्वर्य बढाता और इस लगाये हुए लगाये हुए धन के फलस्वरुप कुछ कर दिखाता। मैं केवल भावुकता के फेर में पड़कर धन का ह्रास नहीं कर सकता। तपेश्वरी अवाक रह गयी। जीतकर भी उसकी हार हुई।

इस प्रस्ताव के छ: महीने बाद शिवदास बी.ए. पास होगया। बाबू चैतन्यदास ने अपनी जमींदरी के दो आने बन्धक रखकर कानून पढने के निमित्त उसे इंग्लैड भेजा। उसे बम्बई तक खुद पहुँचाने गये। वहां से लौटे तो उनके अंत:करण में सदिच्छायों से परिमित लाभ होने की आशा थी उनके लौटने के एक सप्ताह पीछे अभागा प्रभुदास अपनी उच्च अभिलाषाओं को लिये हुए परलोक सिधारा।

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