कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 25 प्रेमचन्द की कहानियाँ 25प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग
माधवी ने बालाजी की ओर अभिमान से देखा और कहा- स्वामी जी! आप अपने मुख से ऐसे कहें! मैं आर्य-बाला हूँ। मैंने गान्धारी और सावित्री के कुल में जन्म लिया है। जिसे एक बार मन में अपना पति मान चुकी उसे नहीं त्याग सकती। यदि मेरी आयु इसी प्रकार रोते-रोते कट जाय, तो भी अपने पति की ओर से मुझे कुछ भी खेद न होगा। जब तक मेरे शरीर मे प्राण रहेगा मैं ईश्वर से उनका हित चाहती रहूँगी। मेरे लिए यही क्या कम है, जो ऐसे महात्मा के प्रेम ने मेरे हृदय में निवास किया है? मैं इसी को अपना सौभाग्य समझती हूँ। मैंने एक बार अपने स्वामी को दूर से देखा था। वह चित्र एक क्षण के लिए भी आँखों से नहीं उतरा। जब कभी मैं बीमार हुई हूँ, तो उसी चित्र ने मेरी शुश्रुषा की है। जब कभी मैंने वियोग के आँसू बहाये हैं, तो उसी चित्र ने मुझे सान्त्वना दी है। उस चित्र वाले पति को मैं कैसे त्याग दूँ? मैं उसकी हूँ और सदैव उसी का रहूँगी। मेरा हृदय और मेरे प्राण सब उनकी भेंट हो चुके हैं। यदि वे कहें तो आज मैं अग्नि के अंक में ऐसे हर्षपूर्वक जा बैठूँ जैसे फूलों की शैय्या पर। यदि मेरे प्राण उनके किसी काम आयें तो मैं उसे ऐसी प्रसन्नता से दे दूँ जैसे कोई उपसाक अपने इष्टदेव को फूल चढ़ाता हो।
माधवी का मुखमण्डल प्रेम-ज्योति से अरुण हो रहा था। बालाजी ने सब कुछ सुना और चुप हो गये। सोचने लगे- यह स्त्री है; जिसने केवल मेरे ध्यान पर अपना जीवन समर्पण कर दिया है। इस विचार से बालाजी के नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये। जिस प्रेम ने एक स्त्री का जीवन जलाकर भस्म कर दिया हो उसके लिए एक मनुष्य के घैर्य को जला डालना कोई बात नहीं! प्रेम के सामने धैर्य कोई वस्तु नहीं है। वह बोले- माधवी तुम जैसी देवियाँ भारत की गौरव हैं। मैं बड़ा भाग्यवान हूँ कि तुम्हारे प्रेम-जैसी अनमोल वस्तु इस प्रकार मेरे हाथ आ रही है। यदि तुमने मेरे लिए योगिनी बनना स्वीकार किया है तो मैं भी तुम्हारे लिए इस सन्यास और वैराग्य का त्याग कर सकता हूँ। जिसके लिए तुमने अपने को मिटा दिया है, वह तुम्हारे लिए बड़ा-से-बड़ा बलिदान करने से भी नहीं हिचकिचायेगा।
माधवी इसके लिए पहले ही से प्रस्तुत थी, तुरन्त बोली- स्वामीजी! मैं परम अबला और बुद्विहीन स्त्री हूँ। परन्तु मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि निज विलास का ध्यान आज तक एक पल के लिए भी मेरे मन में नहीं आया। यदि आपने यह विचार किया कि मेरे प्रेम का उद्देश्य केवल यह कि आपके चरणों में सांसारिक बन्धनों की बेड़ियाँ डाल दूँ, तो (हाथ जोड़कर) आपने इसका तत्व नहीं समझा। मेरे प्रेम का उद्देश्य वही था, जो आज मुझे प्राप्त हो गया। आज का दिन मेरे जीवन का सबसे शुभ दिन है। आज मैं अपने प्राणनाथ के सम्मुख खड़ी हूँ और अपने कानों से उनकी अमृतमयी वाणी सुन रही हूँ। स्वामीजी! मुझे आशा न थी कि इस जीवन में मुझे यह दिन देखने का सौभाग्य होगा। यदि मेरे पास संसार का राज्य होता तो मैं इसी आनन्द से उसे आपके चरणों में समर्पण कर देती। मैं हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करती हूँ कि मुझे अब इन चरणों से अलग न कीजियेगा। मैं सन्यास ले लूंगी और आपके संग रहूंगी। वैरागिनी बनूंगी, भभूति रमाऊंगी; परन्तु आपका संग न छोडूंगी। प्राणनाथ! मैंने बहुत दु:ख सहे हैं, अब यह जलन नहीं सही जाती।
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