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प्रेमचन्द की कहानियाँ 27

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9788

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग


बारात तैयार थी। दूल्हा फूलों से सजे हुए मोटर पर बैठ चुका था। बाजे बज रहे थे। यह तमाशा देखकर फूलवती के सीने पर साँप-सा लोटने लगा। जी में आया, कुएँ में कूद पड़े, ताकि ज़िंदगी का खात्मा हो जाए। जब अपना कोई पुरसा ही नहीं, तो इस ज़िंदगी से मौत कहीं अच्छी। पहले यह ख्याल आया कि क्यों न मैं भी उनकी छाती पर मूँग दलूँ? उन्हें दिखाकर किसी से शादी कर लूँ। फिर देखूँ यह हज़रत क्या कर लेते हैं मेरा? मगर इस ख्याल को उसने दिल से निकाल दिया। नहीं, मैं औरतों के नाम को दाग नहीं लगाऊँगी। अपने खानदान को बदनाम न करूँगी। मगर इन हज़रत को बारात लेकर जाने न दूँगी। चाहे मेरी जान ही क्यों न जाए।

मोटर ने हॉर्न बजाया और चला ही चाहती थी कि फूलवती ताँगे से उतर पड़ी और आकर मोटर के सामने खड़ी हो गई।

देवकीनाथ उसे देखते ही जल-भुनकर खाक़ हो गए। बोले, ''तुम यहाँ क्यूँ आईं? तुम्हें यहाँ किसने बुलाया?''

फूलवती ने मुँह फेरते हुए कहा, ''मुझे न्यौते की जरूरत न थी।''

देवकीनाथ, ''हट जाओ मेरे सामने से! मैं तुम्हारी सूरत देखना नहीं चाहता।''

फूलवती, ''तुम शादी करने नहीं जा सकते।''

देवकीनाथ, ''मुझे तुम रोक लोगी?''

देवकीनाथ, ''या तो रोक लूँगी या अपनी जान दे दूँगी।''

देवकीनाथ, ''अगर जान देना चाहती हो, तो कुएँ में कूद पड़ो या जहर खा लो। उस पर भी सबर न आए, तो दूसरी शादी कर लो या किसी को लेकर निकल जाओ। मैं तुम्हें नहीं रोकता। मैं क़सम खाता हूँ कि मैं जबान तक न हिलाऊँगा। मेरे पीछे क्यों पड़ती हो? मैंने तुम्हारे लिए आधी ज़िंदगी तबाह कर दी। अब मुझमें जप्त की ताक़त नहीं है। मेरा कहना मानो! रास्ते से हट जाओ, वरना मैं मोटर चला दूँगा।''

फूलवती, ''मैं भी यही चाहती हूँ। मुझे पैरों-तले रौंदकर तुम जा सकते हो।''

देवकीनाथ, ''तुम क्या चाहती हो? मैं सारी ज़िंदगी तुम्हारे नाम को रोता रहूँ? जो औरत अपने शौहर से दुश्मनी करे, उसकी सूरत देखना गुनाह है।''

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