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प्रेमचन्द की कहानियाँ 27

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9788

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग


फूलवती आन पर जान देने वाली उन औरतों में से थी, उसके दिल में एक बात ठानकर फिर पीछे हटना नहीं जानतीं। अगर वह ज़रा-सा भी दब सकती तो उसकी ज़िंदगी आराम से कट जाती, लेकिन पंद्रह साल की उदासीनता भी उसकी खुद्दारी पर फ़तह न पा सकी। उसे ज्योंही यह खबर मिली, उसने दिल में तय कर लिया कि यह शादी मेरे जीते-जी नहीं होगी - हर्गिज़ नहीं होगी। वह नई बहू के साथ ज़िंदगी की बहार नहीं उड़ा सकते। अगर मैं रो-रो कर ज़िंदगी के दिन पूरे कर रही हूँ तो तुमको भी यूँ ही जलते रहना पड़ेगा। तुम मेरी छाती पर मूँग नहीं दल सकते।

उसने घर में किसी से कुछ न कहा। वालिद को भी खबर न दी। आहिस्ता से घर से निकली। एक ताँगा किराए पर लिया और ससुराल चली। रास्ते में सोचती जाती थी, आज इस ज़िंदगी का आखिरी फ़ैसला करूँगी। दिखला दूँगी कि आज भी हिंदुस्तान में ऐसी औरतें हैं जो अपनी बात के लिए हँसते-हँसते जान दे देती हैं। वह ऐश व आराम के लिए जिंदा नहीं रहती, बल्कि अपने धर्म को पालने के लिए। उसकी हालत बिलकुल दीवानों की-सी हो गई थी। कभी आप-ही-आप हँसती। कभी आप-ही-आप रोती। न जाने क्या बकती जाती थी। इसी बेहोशी के आलम में शौहर के मकान से बहुत दूर निकल गई। जब होश आया, तो तांगे वाले से पूछा, ''यह कौन-सा मुहल्ला है?

बोला, ''यह कटरा है।''

''वाह! तुम यहाँ कहाँ आ गए! मुझे तो सब्जी-मंडी जाना है।''

''तो आपने पहले क्यों न कहा? उसी तरफ़ से तो आया हूँ। क्या आपको घर मालूम नहीं?''

''मुझे ख्याल न था।''

''क्या सो गई थीं? मुझे इतना चक्कर पड़ा।''

''बक-बक मत करो। ताँगा लौटा लो।''

आधे घंटे में ताँगा देवकीनाथ के दरवाजे पर जा पहुँचा।

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