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प्रेमचन्द की कहानियाँ 27

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9788

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग


देवकीनाथ अब जप्त न कर सके। ड्राइवर से बोले, ''चला दो मोटर! जो कुछ होगा, देखा जाएगा। मुझ पर धौंस ज़माने चली है।''

ड्राइवर ने मोटर चलाने से इनकार किया। वह एक औरत पर जान-बूझकर मोटर चलाकर अपनी ज़िंदगी खतरे में नहीं डालना चाहता था। ज़िंदा रहेगा तो भीख माँग खाएगा। ऐसी नौकरी उसे मंजूर नहीं। वह मोटर से उतरकर चल दिया।

फूलवती ने चाबुक जमाया, ''तुम मुझे मौत से क्या धमकाते हो! मौत से वह डरे, जिसे ऐशो-आराम की आरजू हो। यहाँ तो मरने के लिए तैयार होकर आई हूँ। जिंदा रहकर मुझे करना ही क्या है? रोने से जी भर गया। अब उसकी ख्वाहिश नहीं है।''

देवकीनाथ का गुस्सा तैश की हद तक जा पहुँचा। जब इनसान की विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है तो वह अंधा हो जाता है। इतने आदमियों के रू-ब-रू एक औरत के हाथों वह लज्जित न होना चाहता था। हिंसक दृढ़ निश्चय के साथ हॉर्न बजाया।

फूलवती एक बार चौंक पड़ी और अस्तित्व-रक्षा के लिए एक क़दम हट गई। मगर फ़ौरन सँभलकर फिर मोटर के सामने आई और लेट गई। उसके तरकश का यह आखिरी तीर था।

दोबारा हॉर्न बजा।

फूलवती ने हरकत न की। उसकी आँखें बंद थीं, और ऐसा मालूम होता था, गोया दिल बैठा जाता है।

मोटर ने तीसरी बार हॉर्न बजाया और एक तेजी के साथ चल पड़ा। एक चीख की आवाज़ सुन पड़ी और मोटर आगे निकल गई। फूलवती का तन नाजुक जमीन पर पड़ा हुआ सितार के चोट खाए हुए तारों की तरह काँप रहा था। जिसने कभी शौहर का एक कठोर वचन नहीं बर्दाश्त किया, वह आज क्या यह अपमान बर्दाश्त कर सकती थी?

नजारा इतना दर्दनाक था, इतना नफ़रतअंगेज़, इतना वहशियाना कि हज़ारों तमाशाइयों की आँखों में खून उतर आया। सामूहिक प्रवृत्ति हमेशा इंतिहा की तरफ़ प्रवृत्त होती है। वह सब-कुछ कर गुजरती है, जो लोगों के लिए अकल्पनीय है। सैलाब अगर आबादियों को डुबाता है, तो जमीन को भी उपजाऊ करता है। ज़मीन से लगी-बहती नदी के सकून में क्रिया-शक्ति कहाँ?

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