कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 29 प्रेमचन्द की कहानियाँ 29प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग
यशवंत ने चौंककर पूछा- तुम रमेश की स्त्री हो?
स्त्री- हाँ।
यशवंत- मैं उनकी वकालत नहीं कर सकता।
स्त्री- आपको अख्तियार है। आप अपने जिले के आदमी हैं, और मेरे पति के मित्र रह चुके हैं। इसलिए सोचा था, क्यों बाहरवालों को बुलाऊँ। मगर अब इलाहाबाद या कलकत्ते से ही किसी को बुलाऊँगी।
यशवंत- मेहनताना दे सकोगी?
स्त्री ने अभिमान के साथ कहा- बड़े-से-बड़े वकील का मेहनताना क्या होता है?
यशवंत- तीन हजार रुपये रोज।
स्त्री- बस ! आप इस मुकदमे को ले लें, मैं आपको तीन हजार रुपये रोज दूँगी।
यशवंत- तीन हजार रुपये रोज !
स्त्री- हाँ, और यदि आपने उन्हें छुड़ा लिया, तो पचास हजार रुपये आपको इनाम के तौर पर और दूँगी।
यशवंत के मुँह में पानी भर आया। अगर मुकदमा दो महीने भी चला, तो कम-से-कम एक लाख रुपये सीधे हो जायँगे। पुरस्कार ऊपर से, पूरे दो लाख की गोटी है। इतना धन तो जिंदगी-भर में भी जमा न कर पाये थे। मगर दुनिया क्या कहेगी। अपनी आत्मा भी तो नहीं गवाही देती। ऐसे आदमी को कानून के पंजे से बचाना असंख्य प्राणियों की हत्या करना है। लेकिन गोटी दो लाख की है। कुछ रमेश के फँस जाने से इस जत्थे का अंत तो हुआ नहीं जाता। उसके चेले-चापड़ तो रहेंगे ही। शायद वे अब और भी उपद्रव मचायें। फिर मैं दो लाख की गोटी क्यों जाने दूँ ! लेकिन मुझे कहीं मुँह दिखाने को जगह न रहेगी। न सही। जिसका जी चाहे खुश हो जिसका जी चाहे नाराज। ये दो लाख तो नहीं छोड़े जाते। कुछ मैं किसी का गला तो दबाता नहीं, चोरी तो करता नहीं? अपराधियों की रक्षा करना तो मेरा काम ही है।
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