लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

115 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


सहसा स्त्री ने पूछा- आप जवाब देते हैं?

यशवंत- मैं कल जवाब दूँगा। जरा सोच लूँ।

स्त्री- नहीं, मुझे इतनी फुरसत नहीं है। अगर आपको कुछ उलझन हो तो साफ-साफ कह दीजिएगा, मैं और प्रबंध करूँ।

यशवंत को और विचार करने का अवसर न मिला। जल्दी का फैसला स्वार्थ ही की ओर झुकता है। यहाँ हानि की सम्भावना नहीं रहती।

यशवंत- आप कुछ रुपये पेशगी के दे सकती हैं?

स्त्री- रुपयों की मुझसे बार-बार चर्चा न कीजिए। उनकी जान के सामने रुपयों की हस्ती क्या है ! आप जितनी रकम चाहें, मुझसे ले लें। आप चाहे उन्हें छुड़ा न सकें लेकिन सरकार के दाँत खट्टे जरूर कर दें।

यशवंत- खैर, मैं ही वकील हो जाऊँगा। कुछ पुरानी दोस्ती का निर्वाह भी तो करना चाहिए।

पुलिस ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, सैकड़ों शहादतें पेश कीं। मुखबिर ने तो पूरी गाथा ही सुना दी; लेकिन यशवंत ने कुछ ऐसी दलीलें कीं; शहादतों को कुछ इस तरह झूठा सिद्ध किया और मुखबिर की कुछ ऐसी खबर ली कि रमेश बेदाग छूट गये। उन पर कोई अपराध न सिद्ध हो सका। यशवंत जैसे संयत और विचारशील वकील का उनके पक्ष में खड़े हो जाना ही इसका प्रमाण था कि सरकार ने गलती की।

संध्या का समय था। रमेश के द्वार पर शामियाना तना हुआ था। गरीबों को भोजन कराया जा रहा था। मित्रों की दावत हो रही थी। यह रमेश के छूटने का उत्सव था। यशवंत को चारों ओर से धन्यवाद मिल रहे थे। रमेश को बधाइयाँ दी जा रही थीं। यशवंत बार-बार रमेश से बोलना चाहता था, लेकिन रमेश उनकी ओर से मुँह फेर लेते थे। अब तक उन दोनों में एक बात भी न हुई थी।

आखिर यशवंत ने एक बार झुँझलाकर कहा- तुम तो मुझसे इस तरह ऐंठे हुए हो, मानो मैंने तुम्हारे साथ कोई बुराई की है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book