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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


पर हाय रे दुर्दैव ! कहाँ तो विवाह की तैयारी हो रही थी, द्वार पर दरजी, सुनार, हलवाई सब अपना-अपना काम कर रहे थे, कहाँ निर्दय विधता ने और ही लीला रच दी ! विवाह के एक सप्ताह पहले मंगला अनायास बीमार पड़ी, तीन ही दिन में अपने सारे अरमान लिये हुए परलोक सिधार गयी।

सन्ध्या हो गयी थी। मंगला चारपाई पर पड़ी हुई थी। बेटे, बहुएं, पोते-पोतियाँ सब चारपाई के चारों ओर खड़े थे। बिन्नी पैताने बैठी मंगला के पैर दबा रही थी। मृत्यु के समय की भयंकर निस्तब्धाता छायी हुई थी।

कोई किसी से न बोलता था; दिल में सब समझ रहे थे, क्या होनेवाला है। केवल चौबेजी वहाँ न थे।

सहसा मंगला ने इधर-उधर इच्छापूर्ण दृष्टि से देखकर कहा, 'ज़रा उन्हें बुला दो; कहाँ हैं? '

पंडितजी अपने कमरे में बैठे रो रहे थे। सन्देश पाते ही आँसू पोंछते हुए घर में आये और बड़े धैर्य के साथ मंगला के सामने हो गये। डर रहे थे कि मेरी आँखों से आँसू की एक बूँद भी निकली, तो घर में हाहाकार मच जायगा।

मंगला ने कहा, 'एक बात पूछती हूँ बुरा न मानना बिन्नी तुम्हारी कौन है? '

पंडित -'बिन्नी कौन है? मेरी बेटी है और कौन? '

मंगला- 'हाँ, मैं तुम्हारे मुँह से यही सुनना चाहती थी। उसे सदा अपनी बेटी समझते रहना। उसके विवाह के लिए मैंने जो-जो तैयारियाँ की थीं, उनमें कुछ काट-छाँट मत करना।'

पंडित- 'इसकी कुछ चिन्ता न करो। ईश्वर ने चाहा, तो उससे कुछ ज्यादा धूम-धाम के साथ विवाह होगा।'

मंगला- 'उसे हमेशा बुलाते रहना, तीज-त्योहार में कभी मत भूलना।'

पंडित- 'इन बातों की मुझे याद दिलाने की जरूरत नहीं।'

मंगला ने कुछ सोचकर फिर कहा, 'इसी साल विवाह कर देना।'

पंडित- 'इस साल कैसे होगा?'

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