कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 29 प्रेमचन्द की कहानियाँ 29प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग
मंगला- 'यह फागुन का महीना है। जेठ तक लगन है।'
पंडित- 'हो सकेगा तो इसी साल कर दूँगा।'
मंगला- 'हो सकने की बात नहीं, जरूर कर देना।'
पंडित- 'क़र दूँगा।'
इसके बाद गोदान की तैयारी होने लगी। बुढ़ापे में पत्नी का मरना बरसात में घर का गिरना है। फिर उसके बनने की आशा नहीं होती। मंगला की मृत्यु से पंडितजी का जीवन अनियमित और विश्रृंखल-सा हो गया। लोगों से मिलना-जुलना छूट गया। कई-कई दिन कचहरी ही न जाते। जाते भी तो बड़े आग्रह से। भोजन से अरुचि हो गयी। विंध्येश्वरी उनकी दशा देख-देखकर दिल में कुढ़ती और यथासाध्य उनका दिल बहलाने की चेष्टा किया करती थी। वह उन्हें पुराणों की कथाएं पढ़कर सुनाती, उनके लिए तरह-तरह की भोजन-सामग्री पकाती और उन्हें आग्रह-अनुरोध के साथ खिलाती थी। जब तक वह न खा लेते, आप कुछ न खाती थी। गरमी के दिन थे ही। रात को बड़ी देर तक उनके पैताने बैठी पंखा झला करती और जब तक वह न सो जाते, तब तक आप भी सोने न जाती। वह जरा भी सिर-दर्द की शिकायत करते, तो तुरन्त उनके सिर में तेल डालती। यहाँ तक कि रात को जब उन्हें प्यास लगती, तब खुद दौड़कर आती और उन्हें पानी पिलाती।
धीरे-धीरे चौबेजी के हृदय में मंगला केवल एक सुख की स्मृति रह गयी।
एक दिन चौबेजी ने बिन्नी को मंगला के सब गहने दे दिये। मंगला का यह अंतिम आदेश था। बिन्नी फूली न समायी। उसने उस दिन खूब बनाव-सिंगार किया। जब संध्या के समय पंडितजी कचहरी से आये, तो वह गहनों से लदी हुई उनके सामने कुछ लजाती और मुस्कराती हुई आकर खड़ी हो गयी।
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