कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 29 प्रेमचन्द की कहानियाँ 29प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग
बिन्नी- '(सकुचाती हुई) ऐसी जल्दी क्या है?'
पंडित- 'ज़ल्दी क्यों नहीं। जमाना हँसेगा।'
बिन्नी- 'हँसने दीजिए। मैं यहीं आपकी सेवा करती रहूँगी।'
पंडित- 'नहीं बिन्नी, मेरे लिए तुम क्यों हलकान होगी। मैं अभागा हूँ, जब तक जिन्दगी है, जिऊँगा; चाहे रोकर जिऊँ, चाहे हँसकर। हँसी मेरे भाग्य से उठ गई। तुमने इतने दिनों सँभाल लिया, यही क्या कम एहसान किया। मैं यह जानता हूँ कि तुम्हारे जाने के बाद कोई मेरी खबर लेनेवाला नहीं रहेगा, यह घर तहस-नहस हो जायगा और मुझे घर छोड़कर भागना पड़ेगा। पर क्या किया जाय, लाचारी है। तुम्हारे बिना अब मैं यहाँ क्षण-भर भी नहीं रह सकता। मंगला की खाली जगह तो तुमने पूरी की, अब तुम्हारा स्थान कौन पूरा करेगा?'
बिन्नी -'क्या इस साल रुक नहीं सकता। मैं इस दशा में आपको छोड़ कर न जाऊँगी।'
पंडित- 'अपने बस की बात तो नहीं? वे लोग आग्रह करेंगे, तो मजबूर होकर करना ही पड़ेगा।'
बिन्नी- 'बहुत जल्दी मचायें तो आप कह दीजिएगा, अब नहीं करेंगे। उन लोगों के जी में जो आये, करें। यहाँ कोई उनका दबैल बैठा हुआ है?'
पंडित- 'वे लोग अभी से आग्रह कर रहे हैं।'
बिन्नी- 'आप फटकार क्यों नहीं देते? '
पंडित- 'क़रना तो है ही फिर विलम्ब क्यों करूँ? यह दु:ख और वियोग तो एक दिन होना ही है। अपनी विपत्ति का भार तुम्हारे सिर क्यों रखूँ?'
बिन्नी- 'दु:ख-सुख में काम न आऊँगी, तो और किस दिन काम आऊँगी? '
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