कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 29 प्रेमचन्द की कहानियाँ 29प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग
इतने में चौबेजी आये। विंध्येश्वरी उठ खड़ी हुई। उसे इतनी लज्जा आयी कि जी चाहा कहीं भाग जाय। खिड़की से नीचे कूद पड़े।
चौबेजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले, 'बिन्नी, मुझसे डरती हो? '
बिन्नी कुछ न बोली, मूर्ति की तरह वहीं खड़ी रही। एक क्षण में चौबेजी ने उसे बिठा दिया, वह बैठ गयी। उसका गला भर-भर आता था। भाग्य की यह निर्दय लीला, यह क्रूर क्रीड़ा उसके लिए असह्य हो रही थी।
पंडितजी ने पूछा, 'बिन्नी, बोलती क्यों नहीं? क्या मुझसे नाराज हो? '
विंध्येश्वरी ने अपने कान बंद कर लिये। यही परिचित आवाज वह कितने दिनों से सुनती चली आती थी। आज वह व्यंग्य से भी तीव्र और उपहास से भी कटु प्रतीत होती थी। सहसा पंडितजी चौंक पड़े, आँखें फैल गयीं और दोनों हाथ मेंढक के पैरों की भाँति सिकुड़ गये। वह दो कदम पीछे हट गये। खिड़की से मंगला अंदर झाँक रही थी ! छाया नहीं, मंगला थी मंगला थी सदेह, साकार, सजीव !
चौबेजी काँपती हुई टूटी-फूटी आवाज से बोले 'बिन्नी देखो, वह क्या है? '
बिन्नी ने घबराकर खिड़की की ओर देखा। कुछ न था। बोली, 'क्या है? मुझे तो कुछ नहीं दिखाई देता।
चौबेजी -'अब गायब हो गयी; लेकिन ईश्वर जानता है, मंगला थी।'
बिन्नी- 'बहन?'
चौबेजी- 'हाँ-हाँ, वही। खिड़की से अंदर झाँक रही थी। मेरे तो रोयें खड़े हो गये।'
विंध्येश्वरी काँपती हुई बोली, 'मैं यहाँ नहीं रहूँगी।'
चौबे- 'नहीं, नहीं, बिन्नी, कोई डर नहीं है, मुझे धोखा हुआ होगा। बात यह है कि वह घर में रहती थी, यहीं सोती थी, इसी से कदाचित् मेरी भावना ने उसकी मूर्ति लाकर खड़ी कर दी। कोई बात नहीं है। आज का दिन कितना मंगलमय है कि मेरी बिन्नी यथार्थ में मेरी ही हो गयी ... '
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