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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


यह कहते-कहते चौबेजी फिर चौंके। फिर वही मूर्ति खिड़की से झाँक रही थी मूर्ति नहीं, सदेह, सजीव, साकार मंगला ! अबकी उसकी आँखों में क्रोध न था, तिरस्कार न था, उनमें हास्य भरा हुआ था, मानो वह इस दृश्य पर हँस रही है मानो उसके सामने कोई अभिनय हो रहा है।

चौबेजी ने काँपते हुए कहा, 'बिन्नी, फिर वही बात हुई ! वह देखो, मंगला खड़ी है ! '

विंध्येश्वरी चीखकर उनके गले से चिमट गयी !

चौबेजी ने महावीर का नाम जपते हुए कहा, 'मैं किवाड़ बंद किये देता हूँ।'

बिन्नी- 'मैं इस घर में नहीं रहूँगी। (रो कर) भैयाजी, तुमने बहन के अंतिम आदेश को नहीं माना, इसी से उनकी आत्मा दुखी हो रही है। मुझे तो किसी अमंगल की आशंका हो रही है।'

चौबेजी ने उठकर खिड़की के द्वार बन्द कर दिये और कहा, 'मैं कल से दुर्गापाठ कराऊँगा। आज तक कभी ऐसी शंका न हुई थी। तुमसे क्या कहूँ, मालूम होता है ... होगा; उस बात को जाने दो। यहाँ बड़ी गरमी पड़ रही है। अभी पानी गिरने को दो महीने से कम नहीं हैं। हम लोग मंसूरी क्यों न चलें।'

विंध्ये.- 'मेरा तो कहीं जाने का जी नहीं चाहता। कल से दुर्गापाठ जरूर कराना। मुझे अब इस कमरे में नींद न आयेगी।'

पंडित- 'ग़्रंथों में तो यही देखा है कि मरने के बाद केवल सूक्ष्म शरीर रह जाता है। फिर समझ में नहीं आता, यह स्वरूप क्योंकर दिखाई दे रहा है। मैं सच कहता हूँ बिन्नी, अगर तुमने मुझ पर यह दया न की होती; तो मैं कहीं का न रहता। शायद इस वक्त मैं बद्रीनाथ के पहाड़ों पर सिर टकराता होता, या कौन जाने विष खाकर प्राणांत कर चुका होता !'

विंध्ये.- 'मंसूरी में किसी होटल में ठहरना पड़ेगा !'

पंडित- 'नहीं, मकान भी मिलते हैं। मैं अपने एक मित्र को लिखे देता हूँ, वह कोई मकान ठीक कर रखेंगे वहाँ।

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