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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


यह कहकर पंडितजी फिर खड़े हुए। संकोच ने फिर उनकी जबान बंद कर दी। यह आदर सत्कार इसीलिए तो है कि मैं अपना स्वार्थ भाव छिपाए हुए हूँ। कोई इच्छा प्रकट की और उनकी आँखें बदलीं। सूखा जबाव चाहे न मिले, पर यह श्रद्वा न रहेगी। वह नीचे उतर गये, और सड़क पर एक क्षण के लिए खड़े होकर सोचने लगे- अब कहाँ जाऊँ? उधर जाड़े का दिन किसी विलासी के धन की भाँति भागा चला जाता था। वह अपने ही ऊपर ही झुँझला रहे थे जब किसी से माँगूँगा ही नहीं, तो कोई क्यों देने लगा? कोई क्या मेरे मन का हाल जानता है? वे दिन गये जब धनी लोग ब्राहाणों की पूजा किया करते थे। वह आशा छोड़ दो कि कोई महाशय आकर तुम्हारे हाथ में रुपये रख देंगे। वह धीरे-धीरे आगे बढ़े।

सहसा सेठजी ने पीछे से पुकारा- पंडितजी जरा ठहरिए।

पंडितजी ठहर गए। फिर घर चलने के फिए आग्रह करने आता होगा।
यह तो न हुआ कि एक दस रुपये का नोट लाकर दे देता। मुझे घर ले जाकर न जाने क्या करेगा !

मगर जब सेठजी ने सचमुच एक गिन्नी निकालकर उनके पैरों पर रख दी, तो उनकी आँखों में एहसान के आँसू छलक गए। अब भी सच्चे धर्मात्मा जीव संसार में हैं, नहीं तो यह पृथ्वी रसातल में न चली जाती! अगर इस वक्त उन्हें सेठजी के कल्याण के लिए अपनी देह का सेर-आधा सेर रक्त भी देना पड़ता तो शौक से दे देते। गद्गद कंठ से बोले- इसका तो कुछ काम न था, सेठजी! मैं भिक्षुक नहीं हूँ आप का सेवक हूँ।

सेठजी श्रद्धा-विनय पूर्ण शब्दों में बोले- भगवान, इसे स्वीकार कीजिए। यह दान नहीं भेंट है। मैं भी आदमी पहचानता हूँ। बहुतेरे साधु-संत, योगी-यती देश और धर्म के सेवक आते रहते हैं, पर न जाने क्यों किसी के प्रति मेरे मन में यह श्रद्धा नहीं उत्पन्न होती। उनसे किसी तरह पिंड छुड़ाने की पड़ जाती है। आपका संकोच देखकर में समझ गया कि आपका यह पेशा नहीं है। आप विद्वान् हैं, धर्मात्मा हैं, पर किसी संकट में पड़े हुए हैं। इस तुच्छ भेंट को स्वीकार कीजिए और मुझे आशीर्वाद दीजिए।

पंडितजी दवाएँ लेकर घर चले, तो हर्ष, उल्लास और विजय से उनका हृदय उछला पड़ता था। हनुमान भी संजीवनी बूटी लाकर इतने प्रसन्न न हुए होंगे। ऐसा सच्चा आंनद उन्हें कभी प्राप्त न हुआ था। उनके हृदय में इतने पवित्र भावों का संचार कभी न हुआ था।

दिन बहुत थोड़ा रह गया था। सूर्यदेव अविरल गति से पश्चिम की ओर दौड़ते चले जाते थे! क्या उन्हें भी किसी रोगी को दवा देनी थी? वह बड़े वेग से दौड़ते हुए पर्वत की ओट में छिप गए। पंडितजी और फुर्ती से पांव बढ़ाने लगे, मानो उन्होंने सूर्यदेव को पकड़ लेने की ठानी हो।

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