लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

52 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


क्षण मात्र में प्रभा का मुखमंडल वर्णहीन हो गया। आँखें बुझ गईं। दीपक ठंडा हो गया। मंदारकुभार ने भी तलवार फेंक दी और वह आँखों में आँसू भरे प्रभा के सामने घुटने टेककर बैठ गया। दोनों प्रेमियों की आँखें सजल थीं। पतिंगे बुझे हुए दीपक पर जान दे रहे थे।

प्रेम के रहस्य निराले हैं। अभी एक क्षण हुए राजकुमार प्रभा पर तलवार लेकर झपटा था। प्रभा किसी प्रकार उसके साथ चलने पर उद्यत न होती थी। लज्जा का भय, धर्म की बेड़ी, कर्तव्य की दीवार, रास्ता रोके खड़ी थी, परंतु उसे तलवार के सामने देखकर उसने उस पर अपना प्राण अर्पण कर दिया। प्रीति की प्रथा निबाह दी, लेकिन अपने वचन के अनुसार उसी घर में।

हाँ, प्रेम के रहस्य निराले हैं। अभी एक क्षण पहले राजकुमार प्रभा पर तलवार लेकर झपटा था। उसके खून का प्यासा था। ईर्ष्या की अग्नि उसके हृदय में दहक रही थी। वह रुधिर की धारों से शांत हो गई। कुछ देर तक वह अचेत बैठा रोता रहा। फिर उठा और उसने तलवार उठाकर जोर से अपनी छाती में चुभा ली। फिर रक्त की फुहार निकली। दोनों धाराएँ मिल गई और उनमें कोई भेद न रहा।

प्रभा उसके साथ चलने पर राजी न थी, किंतु वह प्रेम के बंधन को तोड़ न सकी। दोनों उस घर ही से नहीं, संसार से एक साथ सिधारे।

0 0 0

 

7. महरी

भगवान् भला करे लल्लूजी की माँ का, जिनके बल पर हर प्रकार का आराम है। अन्यथा डाकखाने की नौकरी जहाँ सात-आठ घंटे की हाजिरी और कभी दफ्तर को देर न हो, यह चमत्कार नहीं तो और क्या है? घरबार का सारा काम सदा स्वयं ही समय पर हो जाता, हमारी गाड़ी कभी ‘लेट’ होती ही नहीं। घर की सभी चूलें घड़ी के पुर्जों की भाँति सदा अपनी-अपनी जगह पर ठीक रहती हैं। यह सब लल्लूजी की माँ का जादू है। यदि मुझे किसी छुट्टी के दिन दफ्तर जाना पड़ जाय तो रो पडूँ लेकिन वे बेचारी हैं कि उनको न इतवार से मतलब है, न ही बड़े दिन से। काम है कि प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है। मेरा घमण्ड वेतन के साथ-साथ बढ़ता जाता है लेकिन वे उफ तक नहीं करतीं। घर में प्रभु की कृपा से चार बच्चे हैं, उनके ही काम से एक औरत को अवकाश मिलना कठिन है, फिर पता नहीं वे अन्य कामों के लिए किस प्रकार समय निकाल लेती हैं। मेरे व्यक्तिगत सुख के सभी काम वे स्वयं ही करती हैं। जाड़े में सुबह-सुबह गर्म पानी मौजूद, हजामत का सामान अपनी जगह तैयार, पूजा के बर्तन साफ, पालिश किए हुए जूते, अर्थात् कहीं से उँगली रखने का कोई अवसर न मिलता। इस पर मजा यह कि इन बातों में कुछ खर्च नहीं होता। एक जमाना था कि मुझे बीस रुपये मासिक मिलते थे। उस समय देसी जूते और साधारण से चारखाने के कोट पर गुजर होती थी। अब परमात्मा की कृपा से सौ रुपये मासिक मिलते हैं तो पालिशदार जूता और रेशमी कोट से कम नहीं चाहिए। वे बेचारी हैं कि जिस प्रकार पहले रहती थीं, उसी प्रकार आज भी गुजर करती हैं। केवल दूसरे साल एक गहना और कार्तिकी के दिन त्रिवेणी स्नान, बस इसी में प्रसन्न हैं। इधर हम लोग हैं कि प्रत्येक वर्ष वेतन-वृद्धि होती है लेकिन धन्यवाद के स्थान पर सदा उलाहना-उपालम्भ ही मुँह पर रहता है और हर समय पोस्टल एसोसिएशन की पुकार कि वार्षिक वेतन-वृद्धि में बढ़ोतरी और दफ्तर के कार्य का समय कम रखा जाय और कोई भी अधिकारी आँख उठाकर न देख सके। मैं जो दाल-चावल खाता हूँ, वही वे भी खाती हैं। ईश्वर की देन है कि उन्हें सन्तोष रहता है और मुझे असन्तोष और अधीरता।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book