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प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


मैं पूरा का पूरा वेतन लल्लूजी की माँ के हाथ में ही दे देता हूँ और मुझे वह सुख-सुविधा मिलती है जो तीन सौ रुपये के अफसर को भी नसीब न हो। अतिथि भी प्रसन्न रहते हैं और सभी सम्बन्धी भी सन्तुष्ट हैं। सच पूछिए तो जितना काम वे करती हैं वह सौ रुपये से अधिक का होता है। साहब लोग अपने बच्चों के लिए पन्द्रह-बीस रुपये मासिक पर आया रखते हैं लेकिन उनको वह आराम और प्यार नसीब नहीं होता जो मेरे बच्चों को है। यदि मैं एक बावर्ची रखूँ तो कम से कम दस रुपये मासिक और भोजन देने पर भी इतना अच्छा खाना नहीं बना सकता। इस पर मजा यह कि सदा खर्च में किफायत दृष्टि में रहती है। यदि मैं पन्द्रह रुपये मासिक पर अपने लिए एक बैरा रखूँ तो भी वह इतनी देखभाल और रख-रखाव नहीं कर सकेगा। फिर बच्चों के कपड़ों की सिलाई ही दस-पन्द्रह रुपये मासिक की हो जाती है। झाड़ू-बर्तन की नौकरानी ही दस-पाँच रुपये मासिक ले जाती। अर्थात् चाहे जो हिसाब लगाइए, यदि मेरा लगभग समस्त वेतन भी नौकरों को भेंट कर दिया जाय तो भी इतना आराम नसीब नहीं हो सकता, जितना कि इस भागवान के रहने से उपलब्ध है।

इसे अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव समझिए या अखबार पढ़ने अथवा बड़े-बड़े नेताओं के भाषणों का परिणाम, प्रायः मेरे मन में आता है कि अपने जीवन-साथी से इतनी मेहनत कराना भारी अत्याचार है और वास्तव में एक औरत का इस सीमा तक काम करना अन्याय है, लेकिन वह बेचारी अपने मुँह से कुछ नहीं कहती। सम्भवतः उनके मन में कभी विचार ही नहीं आता है। मेरे मन में कभी-कभी उफान सा उठता है कि एक महरी या नौकरानी रख दूँ तो शायद उन्हें कुछ आराम मिले। वास्तव में बहुत स्वार्थीपन की बात है कि मैं तो बाबू बना हुआ हर प्रकार का आराम उठाऊँ और घर की देवी नौकरानी की भाँति दिन-भर काम ही करती रहे। लेकिन जब कभी देवीजी से इसकी चर्चा होती है तो वे सदा हँसकर टाल देती हैं - "क्यों बेकार में खर्च बढ़ाओगे? मैं कुछ पढ़ी-लिखी तो हूँ नहीं जो दिन-भर पलंग पर लेटी रहूँ, या सुबह-शाम पार्क की सैर को जाऊँ। जिस तरह काम चलता है, चलने दो।"

यदि मैं दबाव देता हूँ तो वे कहने लगती हैं - "मैं तो मना नहीं करती, महरी रख लो।"

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