कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
मेरे समय से पहले तो सदा एक नौकरानी घर में रही, मुझे वही समय याद आता है। बुढ़िया नौली के बाद घर में कोई नौकरानी नहीं रही। भगवान् भला करे, उसकी कमर झुक गई थी लेकिन मरते दम तक अकेली ही सारा काम करती रही। सदा सेवा ही की, स्वयं कभी बीमारी तक में भी कोई सेवा न ली। उस पर मजा यह कि केवल एक रुपया वेतन और खाने पर, और वह उम्र भर का वेतन भी मरने पर घर में ही छोड़ मरी। माँ से अधिक सेवा करने वाली, दुःख-दर्द बाँटने वाली! अब ऐसे नौकर कहाँ मिलते हैं। क्या समय था, अत्यल्प वेतनों पर भी लोग सम्पन्न थे। इसके प्रतिकूल आजकल वह समय है कि आय और व्यय, दोनों में वृद्धि, उस पर भी हर समय असन्तोष। पहले प्रत्येक वस्तु सस्ती थी। लट्ठा और उत्तम मलमल चार आने गज, अच्छी मिठाई पाँच-छह आने सेर। अब खर्च दोगुना हो गया है मगर वह बात ढूँढ़े नहीं मिलती। भगवान् करे वह समय एक बार तो पुनः आ जाय, चाहे थोड़े ही समय के लिए हो लेकिन एक बार तो ‘टके सेर भाजी और टके सेर खा जा’ बिक जाय।
अब मैंने किसी आवश्यकता के कारण नहीं और न किसी के कहने पर बल्कि अपनी इच्छा से, फैशन की दृष्टि से एक महरी रखने का संकल्प कर लिया, लेकिन यह संकल्प रास नहीं आया। हर बार नयी मुसीबतों से दो-चार होना पड़ा और आराम तो एक ओर, चिन्ता ही चिन्ता रही। प्रतिदिन बर्तनों और कपड़ों का गुम होना आरम्भ हुआ। खर्चे अत्यधिक बढ़ गए। यदि पहले दस-पन्द्रह रुपये के घी में काम चल जाता था तो अब पच्चीस का लगने लगा। नौकरानी है कि हर समय अपने पिछले स्वामी की बड़ाई का गीत गाती रहती है, "वहाँ यह होता था वह होता था, इस प्रकार घी पतनालों में बहाया जाता था, दूध से बर्तन धुलते थे, यह मिलता था वह मिलता था।"
अर्थात् आराम कम और खर्च अधिक हो गया, हर समय की बकझक ऊपर से।
पहली नौकरानी जो मिली उसकी अवस्था बीस-बाईस वर्ष की रही होगी। आप उसे रूपसी नहीं कह सकते हैं लेकिन शिष्ट अवश्य थी और उसकी आँखों में एक प्रकार की चमक भी थी। यद्यपि कोई विशेष बात नहीं हुई लेकिन देवीजी को शिकायत ही रही। वह कहतीं कि मैं अब दफ्तर देर से जाता और शीघ्र लौट आता हूँ। लेकिन मैं पूरे समय तक दफ्तर में ही रहता। डाकखाने की नौकरी में देरी और जल्दी कैसी। दूसरी शिकायत यह हुई कि मैं जमना (नौकरानी का नाम) की ओर बहुत देखता हूँ, हर समय उसी से बातें करता रहता हूँ, लेकिन मुझे कोई असामान्य बात नहीं लगी। लेकिन जब शिकायत बढ़ते-बढ़ते कष्ट और शोक तक जा पहुँची तो मैंने अन्ततः उसे नौकरी से निकाल दिया। इसके पश्चात् मैंने ढूँढ़कर एक बुढ़िया रखी ताकि घर में किसी प्रकार का सन्देह उत्पन्न न हो और आवश्यकता भी पूरी हो जाय, लेकिन यह प्रयोग भी असफल रहा। बुढ़िया से न तो पानी से भरा कोई बर्तन ही उठता है, न पलंग ही उठा सकती है। वह तो हड्डियों और खाल का एक थैला-भर थी और सच पूछिए तो उसे स्वयं ही एक सेवक की आवश्यकता थी। बहरहाल लल्लूजी की माँ को उससे कोई आराम नहीं मिला। उन्हें पहले जितना काम करना पड़ता था, अब भी उतना ही करना पड़ता था। लेकिन बीच में मैं बेवकूफ बना। संक्षेप में यह कि अन्ततः उसे भी नौकरी से निकाल दिया और अब एक मध्यम आयु वाली की खोज आरम्भ हुई। सर्विस सीकिंग एजेन्सी के माध्यम से एक चालीस वर्षीया नौकरानी की खोज हुई। उससे पहले अनेक सेविकाएँ आईं और चली गईं। कोई काम का विवरण पूछती और काम बताया जाता तो यह कहती हुई उलटे पाँवों चली जाती कि काम तो दो नौकरों का है और वेतन एक का भी नहीं। इस पर जब दूसरी महरी आई तो मैंने कहा कि काम तो कुछ नहीं है, केवल पलंग बिछाकर पड़े रहना होगा। वह भी चली गई। विचित्र दशा है। यदि काम लेता हूँ तो नौकर नहीं रहता। यदि कहता हूँ कि कोई काम नहीं तो भी कोई परिणाम नहीं निकलता। खैर, हफ्ते-पखवाड़े की खोज के पश्चात् एक और मिली कि जिस पर न किसी प्रकार के सन्देह हो सकते थे और जो कामचोर भी नहीं थी। हर प्रकार से, अपनी बुद्धि से भली प्रकार सोच-विचार कर उसे नौकर रखा।
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