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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


''मैं क्या जानूँ तुम्हारी क्या आमदनी है। कमाते होगे अपने लिए, मेरे लिए क्या करते हो? तुम्हें तो भगवान् ने औरत बनाया होता, तो अच्छा होता। रात-दिन कंघी-चोटी किया करते। तुम नाहक मर्द बने। अपने शौक-सिंगार से बचता ही नहीं, आगे की फिक्र तुम क्या करोगे?''

मैंने झुँझलाकर कहा- ''क्या तुम्हारी यही इच्छा है कि इसी वक्त चला जाऊँ?''

देवीजी ने भी त्योरियाँ चढ़ाकर कहा- ''चले क्यों नहीं जाते, मैं तो तुम्हें बुलाने न आई थी या मेरे लिए कोई रोकड़ लाए हो।''

मैंने चिंतित स्वर में कहा- ''तुम्हारी निगाह में प्रेम का कोई मूल्य नहीं, जो कुछ है वह रोकड़ ही है।''

देवीजी ने त्यौरियाँ चढ़ाए हुए ही कहा- ''प्रेम अपने आपसे करते होगे, मुझसे तो नहीं करते।''

''तुम्हें पहले तो यह शिकायत कभी न थी।''

''इससे यह तो तुमको मालूम ही हो गया कि मैं रोकड़ की परवा नहीं करती, लेकिन देखती हूँ कि ज्यों-ज्यों तुम्हारी दशा सुधर रही है, तुम्हारा हृदय भी बदल रहा है। इससे तो यही अच्छा था कि तुम्हारी वही दशा बनी रहती। तुम्हारे साथ उपवास कर सकती हूँ फटे चीथड़े पहनकर दिन काट सकती हूँ लेकिन यह नहीं हो सकता कि तुम चैन करो और मैं मैके में पड़ी भाग्य को रोया करूँ। मेरा प्रेम उतना सहनशील नहीं है।''

सालों और नौकरों ने मेरा जो आदर-सम्मान किया था, उसे देखकर मैं अपने ठाट पर फूला न समाया था। अब यहाँ मेरी जो अवहेलना हो रही थी, उसे देखकर मैं पछता रहा था कि व्यर्थ ही यह स्वाँग भरा। अगर साधारण कपड़े पहने, रोनी सूरत बनाए आता, तो बाहरवाले चाहे अनादर ही करते, लेकिन देवीजी तो प्रसन्न रहतीं, पर अब तो भूल हो गई थी। देवीजी की बातों पर मैंने गौर किया, तो मुझे उनसे सहानुभूति हो गई। यदि देवीजी पुरुष होतीं और मैं उनकी स्त्री, तो क्या मुझे यह किसी तरह भी सह्य होता कि वह तो छैला बनी घूमें और मैं पिंजरे में बंद दाने और पानी को तरसूँ। चाहिए तो यह था कि देवीजी से सारा रहस्य कह सुनाता, पर आत्मगौरव ने इसे किसी तरह स्वीकार न किया। स्वाँग भरना सर्वथा अनुचित था, लेकिन परदा खोलना तो भीषण पाप था।

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