लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

224 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


आखिर मैंने फिर उसी खुशामद से काम लेने का निश्चय किया, जिसने इतने कठिन अवसरों पर मेरा साथ दिया था। प्रेम-पुलकित कंठ से बोला- ''प्रिये! सच कहता हूँ मेरी दशा अब भी वही है, लेकिन तुम्हारे दर्शनों की इच्छा इतनी बलवती हो गई थी कि उधार कपड़े लिए, यहाँ तक कि अभी सिलाई भी नहीं दी। फटे हालों आते संकोच होता था कि सबसे पहले तुमको दुःख होगा और तुम्हारे घरवाले भी दु:खी होंगे। अपनी दशा जो कुछ है, वह तो है ही, उसका ढिंढोरा पीटना तो और भी लज्जा की बात है।

देवीजी ने कुछ शांत होकर कहा- ''तो उधार लिया?''

''और नक़द कहीं धरा था।''

''घड़ी भी उधार ली?''

''हाँ, एक जान-पहचान की दुकान से ले ली।''

''कितने की है?''

बाहर किसी ने पूछा होता, तो मैंने 500 रुपए से कौड़ी कम न बताया होता, लेकिन यहाँ मैंने 25 रुपए बताया।

''तब तो बड़ी सस्ती मिल गई।''

''और नहीं मैं फँसता ही क्यों?''

''इसे मुझे देते जाना।''

ऐसा जान पड़ा मेरे शरीर में रक्त ही नहीं रहा। सारे अवयव निस्पंद हो गए। इनकार करता हूँ तो नहीं बचता, स्वीकार करता हूँ तो भी नहीं बचता। आज प्रातःकाल यह घड़ी मँगनी पाकर मैं फूला न समाया था। इस समय वह ऐसी मालूम हुई, मानो कौडियाला गेंडली मारे बैठा हो। बोला- ''तुम्हारे लिए कोई अच्छी घड़ी ले दूँगा।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai