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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


'' 15 रुपए में मेरा गुजर कैसे होगा?''

''गुज़र तो लोग 5 रुपए में भी करते हैं और 5०० में भी। इसकी न चलाओ। अपनी सामर्थ्य देख लो।''

दानू बाबू ने जिस निष्ठुरता से ये बातें कीं, उससे मुझे विश्वास हो गया कि अब इनके सामने रोना-धोना व्यर्थ है। यह अपनी पूरी रक़म लिए बिना न मानेंगे। घड़ी अधिक-से-अधिक 2०० रुपए की थी, लेकिन इससे क्या होता है। उन्होंने तो पहले ही उसका दाम बता दिया था। अब उस विषय पर मीन-मेष विचारने का मुझे साहस कैसे हो सकता था।

क़िस्मत ठोंककर घर आया। यह विवाह करने का मज़ा है। उस वक्त कैसे प्रसन्न थे, मानो चारों पदार्थ मिले जा रहे थे। अब नानी के नाम को रोओ। घडी का शौक चर्राया था, उसका फल भोगो। न घड़ी बाँधकर जाते, तो ऐसी कौन-सी किरकिरी हुई जाती थी। मगर तब तुम किसकी सुनते थे। देखें, 15 रुपए में कैसे गुजर करते हो। 3० रुपए में तो तुम्हारा पूरा ही न पड़ता था, 15 रुपए में तुम क्या भुना लोगे। इन्हीं चिंताओं में पड़ा-पड़ा मैं सो गया। भोजन करने की भी सुधि न रही!

जरा सुन लीजिरा कि 3० रुपए में मैं कैसे गुजर करता था। 2० रुपए तो होटल को देता था। 5 नाश्ते का खर्च था और बाकी 5 में पान, सिगरेट, कपड़े, जूते सब कुछ। मैं कौन राजसी ठाठ से रहता था, ऐसी कौन-सी फ़िजूल-खर्ची करता था कि अब खर्च में कमी करता। मगर दानू बाबू का कर्ज तो चुकाना ही था। रोकर चुकाता या हँसकर। एक बार जी में आया कि ससुराल जाकर घड़ी उठा लाऊँ, लेकिन दानू बाबू से कह चुका था कि घड़ी खो गई। अब घड़ी लेकर जाऊँगा, तो यह मुझे झूठा और लबाडिया समझेंगे। मगर क्या मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने समझा था कि घड़ी खो गई, ससुराल गया, तो उसका पता चल गया। मेरी बीबी ने उड़ा दिया था। हाँ, यह चाल अच्छी थी, लेकिन देवीजी से क्या बहाना करूँगा। उसे कितना दुःख होगा। घड़ी पाकर कितनी खुश हो गई थी! अब जाकर घड़ी छीन लाऊँ, तो शायद फिर मेरी सूरत भी न देखें। हाँ, यह हो सकता था कि दानू बाबू के पास जाकर रोता। मुझे विश्वास था कि आज क्रोध में उन्होंने चाहे कितनी ही निष्ठुरता दिखाई हो, लेकिन दो-चार दिन के बाद जब उनका क्रोध शांत हो जाए और मैं जाकर उनके सामने रोने लगूँ तो उन्हें अवश्य दया आ जाएगी। बचपन की मित्रता हृदय से नहीं निकल सकती, लेकिन मैं इतना आत्म-गौरव-शून्य न था और न हो सकता था।

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