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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


मैं दूसरे ही दिन एक सस्ते होटल में उठ गया। यहाँ 12 रुपए में ही प्रबंध हो गया। सुबह को दूध और चाय से नाश्ता करता था। अब छटाँक-भर चनों पर बसर होने लगी। 12 रुपए तो यों बचे। पान, सिगरेट आदि की मद में 3 रुपए और कम किए और महीने के अंत में साफ़ 15 रुपए बचा लिए। यह विकट तपस्या थी। इंद्रियों का निर्दय दमन ही नहीं, पूरा संन्यास था, पर जब मैंने ये 15 रुपए ले जाकर दानू बाबू के हाथ में रखे, तो ऐसा जान पड़ा, मानो मेरा मस्तक ऊँचा हो गया है। ऐसे गौरवपूर्ण आनंद का अनुभव मुझे जीवन में कभी न हुआ था।

दानू बाबू ने सहृदयता के स्वर में कहा- ''बचाए या किसी से माँग लाए?''  

''बचाया है, भई माँगता किससे?''

''कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई।''

''कुछ नहीं। अगर कुछ तकलीफ़ हुई भी तो इस वक्त भूल गई?''

''सुबह को तो अव भी खाली रहते हो? आमदनी कुछ और बढ़ाने की फ़िक्र क्यों नहीं करते?''

''चाहता तो हूँ कि कोई काम मिल जाए, तो कर लूँ पर मिलता ही नहीं।''

यहाँ से लौटा, तो मुझे अपने हृदय में एक नवीन बल, एक विचित्र स्फूर्ति का अनुभव हो रहा था। अब तक जिन इच्छाओं को रोकना कष्टप्रद जान पड़ता था, अब उनकी ओर ध्यान भी न जाता था। जिस पान की दूकान को देखकर चित्त अधीर हो जाता था, उसके सामने से मैं सिर उठाए निकल जाता था, मानो अब मैं उस सतह से कुछ ऊँचा उठ गया हूँ। सिगरेट, चाय और चाट अब इनमें से किसी पर भी चित्त आकर्षित न होता था। प्रातःकाल भीगे हुए चने, दोनों जून रोटी और दाल। बस, इसके सिवा मेरे लिए और सभी चीज़ें त्याज्य थीं, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मुझे जीवन में विशेष रुचि हो गई थी। मैं जिंदगी से बेज़ार, मौत के मुँह का शिकार बनने का इच्छुक न था। मुझे ऐसा आभास होता था कि मैं जीवन में कुछ कर सकता हूँ।

एक मित्र ने एक दिन मुझसे पान खाने के लिए बड़ा आग्रह किया, पर मैंने न खाया। तब वह बोले- ''तुमने तो यार पान छोड़कर कमाल कर दिया। मैं अनुमान ही न कर सकता था कि तुम पान छोड़ दोगे। हमें भी कोई तरक़ीब बताओ।''

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