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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


मुझे ससुराल में तीन दिन लग गए। चौथे दिन पत्नी के साथ चला। जी में डर रहा था कि कहीं दानू ने कोई आदमी न भेजा हो, तो कहाँ उतरूँगा, कहाँ को जाऊँगा। आज चौथा दिन है। उन्हें इतनी क्या ग़रज़ पडी है कि बार-बार स्टेशन पर अपना आदमी भेजें। गाड़ी में सवार होते समय इरादा हुआ कि दानू को तार से अपने आने की सूचना दे दूँ लेकिन बारह आने का खर्च था, इससे हिचक गया।

मगर जब गाड़ी बनारस पहुँची, तो देखता हूँ दानू बाबू स्वयं हैट-कैट लगाए, दो कुलियों के साथ खड़े हैं। मुझे देखते ही दौड़े और बोले- ''ससुराल की रोटियाँ बड़ी प्यारी लग रही थीं क्या? तीन दिन से रोज दौड़ रहा हूँ। जुर्माना देना पड़ेगा।''

देवीजी सिर से पाँव तक चादर ओढे, गाड़ी से उतरकर प्लेटफ़ार्म पर खड़ी हो गई थीं। मैं चाहता था, जल्दी से गाड़ी में बैठकर यहाँ से चल दूँ। घड़ी उनकी कलाई पर बँधी हुई थी। मुझे डर लग रहा था कि कहीं उन्होंने हाथ बाहर निकाला और दानू की निगाह घड़ी पर गई, तो बड़ी झेंप होगी। मगर तकदीर का लिखा कौन टाल सकता है। मैं देवीजी से दानू बाबू की सज्जनता का खूब बखान कर चुका था। अब जो दानू उनके समीप आकर संदूक उठवाने लगे, तो देवीजी ने दोनों हाथों से उन्हें नमस्कार किया। दानू ने उनकी कलाई पर घड़ी देख ली। उस वक्त तो क्या बोलते, लेकिन ज्यों ही देवीजी को एक ताँगे पर बिठाकर हम दोनों दूसरे ताँगे पर बैठकर चले, दानू ने मुस्कराकर कहा- ''क्या घड़ी देवीजी ने छिपा दी थी।''

मैंने शर्माते हुए कहा- ''नहीं यार, मैं ही दे आया था, दे क्या आया था, उन्होंने मुझसे छीन ली थी।''

दानू ने मेरा तिरस्कार करके कहा- ''तो तुम मुझसे झूठ क्यों बोले?''

''फिर क्या करता।''

''अगर तुमने साफ़ कह दिया होता, तो शायद मैं इतना कमीना नहीं हूँ कि तुमसे उसका तावान वसूल करता, लेकिन खैर ईश्वर का कोई काम मसलहत से खाली नहीं होता। तुम्हें कुछ दिनों ऐसी तपस्या की जरूरत थी।''

''मकान कहाँ ठीक किया है?''

''वहीं तो चल रहा हूँ।''

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