लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

224 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


''क्या तुम्हारे घर के पास ही है? तब तो बड़ा मज़ा रहेगा।''

''हाँ, मेरे घर से मिला हुआ है, मगर बहुत सस्ता।''

दानू बाबू के द्वार पर दोनों ताँगे रुके। आदमियों ने दौड़कर असबाब उतारना शुरू किया। एक क्षण में दानू बाबू की देवीजी घर में से निकलकर ताँगे के पास आई और पत्नीजी को साथ ले गईं। मालूम होता था, यह सारी बातें पहले ही से सधी-बधी थी। मैंने कहा- ''तो यह कहो कि हम तुम्हारे बिन बुलाए मेहमान हैं।''

''अब तुम अपनी मरजी का कोई मकान ढूँढ लेना। दस-पाँच दिन तो यहाँ रहो।''

लेकिन मुझे यह जबरदस्ती की मेहमानी अच्छी न लगी। मैंने तीसरे ही दिन एक मकान तलाश कर लिया। बिदा होते समय दानू ने 1०० रुपए लाकर मेरे सामने रख दिए और कहा- ''यह तुम्हारी अमानत है। लेते जाओ।''

मैंने विस्मय से पूछा- ''मेरी अमानत कैसी?''

दानू ने कहा- '' 15 रुपए के हिसाब से 6 महीने के 9० रुपए हुए और 1० रुपए सूद।''

मुझे दानू की यह सज्जनता बोझ के समान लगी। बोला- 'तो तुम घड़ी ले लेना चाहते हो।'

''फिर घड़ी का जिक्र किया तुमने। उसका नाम मत लो।''

''तुम मुझे चारों ओर से दबाना चाहते हो।''

''हाँ, दबाना चाहता हूँ फिर? तुम्हें आदमी बना देना चाहता हूँ। नहीं, उम्र-भर तुम यहाँ होटल की रोटियाँ तोड़ते और तुम्हारी देवीजी वहाँ बैठी तुम्हारे नाम को रोतीं। कैसी शिक्षा दी है, इसका एहसान तो न मानोगे।''

''यों कहो, तो आप मेरे गुरु बने हुए थे।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai