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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


''जी हाँ, ऐसे गुरु की तुम्हें जरूरत थी।''

मुझे विवश होकर घड़ी का जिक्र करना पड़ा। डरते-डरते बोला-

''तो भई घड़ी... ''

''फिर तुमने घड़ी का नाम लिया।''

''तुम खुद मुझे मजबूर कर रहे हो।''

''वह मेरी ओर से भावज को उपहार है।''

''और ये 1०० रुपए मुझे उपहार मिले हैं।''

''जी हाँ, यह इम्तहान में पास होने का इनाम है।''

''तब तो डबल उपहार मिला।''

''तुम्हारी तक़दीर ही अच्छी है, मैं क्या करूँ।''

मैं रुपए तो न लेता था, पर दानू ने मेरी जेब में डाल दिए। लेने पड़े। इन्हें मैंने सेविंग बैंक में जमा कर दिया। 1० रुपए महीने पर मकान लिया था। 3० रुपए महीने खर्च करता था। 5 रुपए बचने लगे। अब मुझे मालूम हुआ कि दानू बाबू ने मुझसे 6 महीने तक यह तपस्या न कराई होती, तो सचमुच मैं न जाने कितने दिनों तक देवीजी को मैके में पड़ा रहने देता। उसी तपस्या की बरकत थी कि आराम से ज़िंदगी कट रही थी, ऊपर से कुछ-न-कुछ जमा होता जाता था। मगर घड़ी का क़िस्सा मैंने आज तक देवीजी से नहीं कहा। पाँचवें महीने में मेरी तरक्की का नंबर आया। तरक्की का परवाना मिला। मैं सोच रहा था कि देखूँ अब की दूसरी मदवाले 15 रुपए मिलते हैं या नहीं। पहली तारीख को वेतन मिला, वही 45 रुपए। मैं एक क्षण खड़ा रहा कि शायद बड़े बाबू दूसरी मद वाले रुपए भी दें। जब और लोग अपने-अपने वेतन लेकर चले गए, तो बड़े बाबू बोले- ''क्या अभी लालच घेरे हुए है। अब और कुछ न मिलेगा।''

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