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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


मिट्ठू की यह हालत देखकर गोपाल भी रोने लगा। दोनों का रोना सुनकर लोग दौड़े, पर देखा कि मिट्ठू बेहोश पड़ा है और गोपाल रो रहा है। मिट्ठू का घाव तुरंत धोया गया और मरहम लगाया गया। थोड़ी देर में उसे होश आ गया। वह गोपाल की ओर प्यार की आंखों से देखने लगा, जैसे कह रहा हो कि अब क्यों रोते हो? मैं तो अच्छा हो गया!

कई दिन मिट्ठू की मरहम-पट्टी होती रही और आखिर वह बिल्कुल अच्छा हो गया। पाल अब रोज आता और उसे रोटियां खिलाता।

आखिर कंपनी के चलने का दिन आया। गोपाल बहुत रंजीदा था। वह मिट्ठू के कठघरे के पास खड़ा आंसू-भरी आंखों से देख रहा था कि मालिक ने आकर कहा, “अगर तुम मिट्ठू को पा जाओ तो उसका क्या करोगे?”

गोपाल ने कहा, “मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा, उसके साथ-साथ खेलूंगा, उसे अपनी थाली में खिलाऊंगा, और क्या!”

मालिक ने कहा, “अच्छी बात है, मैं बिना तुमसे अठन्नी लिए ही इसे तुम्हारे हाथ बेचता हूं।”

गोपाल को जैसे कोई राज मिल गया। उसने मिट्ठू को गोद में उठा लिया, पर मिट्ठू नीचे कूद पड़ा और उसके पीछे-पीछे चलने लगा। दोनों खेलते-कूदते घर पहुंच गये।

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7. मिलाप

लाला ज्ञानचन्द बैठे हुए हिसाब-किताब जाँच रहे थे कि उनके सुपुत्र बाबू नानकचन्द आये और बोले- दादा, अब यहां पड़े-पड़े जी उकता गया, आपकी आज्ञा हो तो मैं सैर को निकल जाऊं दो एक महीने में लौट आऊँगा।

नानकचन्द बहुत सुशील और नवयुवक था। रंग पीला, आंखों के गिर्द हलके स्याह धब्बे, कंधे झुके हुए। ज्ञानचन्द ने उसकी तरफ तीखी निगाह से देखा और व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोले– क्यों क्या यहां तुम्हारे लिए कुछ कम दिलचस्पियाँ हैं?

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