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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


ज्ञानचन्द ने बेटे को सीधे रास्ते पर लाने की बहुत कोशिश की थी मगर सफल न हुए। उनकी डॉँट-फटकार और समझाना-बुझाना बेकार हुआ। उसकी संगति अच्छी न थी। पीने पिलाने और राग-रंग में डूबा रहता था। उन्हें यह नया प्रस्ताव क्यों पसन्द आने लगा, लेकिन नानकचन्द उसके स्वभाव से परिचित था। बेधड़क बोला- अब यहाँ जी नहीं लगता। कश्मीर की बहुत तारीफ सुनी है, अब वहीं जाने की सोचता हूँ।

ज्ञानचन्द- बेहतर है, तशरीफ ले जाइए।

नानकचन्द- (हंसकर) रुपये तो दिलवाइए। इस वक्त पाँच सौ रुपये की सख्त जरूरत है।

ज्ञानचन्द- ऐसी फिजूल बातों का मुझसे जिक्र न किया करो, मैं तुमको बार-बार समझा चुका।

नानकचन्द ने हठ करना शुरू किया और बूढ़े लाला इनकार करते रहे, यहाँ तक कि नानकचन्द झुँझलाकर बोला- अच्छा कुछ मत दीजिए, मैं यों ही चला जाऊँगा।

ज्ञानचन्द ने कलेजा मजबूत करके कहा- बेशक, तुम ऐसे ही हिम्मतवर हो। वहाँ भी तुम्हारे भाई-बन्द बैठे हुए हैं न!

नानकचन्द- मुझे किसी की परवाह नहीं। आपका रुपया आपको मुबारक रहे।

नानकचन्द की यह चाल कभी पट नहीं पड़ती थी। अकेला लड़का था, बूढ़े लाला साहब ढीले पड़ गए। रुपया दिया, खुशामद की और उसी दिन नानकचन्द कश्मीर की सैर के लिए रवाना हुआ।

मगर नानकचन्द यहाँ से अकेला न चला। उसकी प्रेम की बातें आज सफल हो गयी थीं। पड़ोस में बाबू रामदास रहते थे। बेचारे सीधे-सादे आदमी थे, सुबह दफ्तर जाते और शाम को आते और इस बीच नानकचन्द अपने कोठे पर बैठा हुआ उनकी बेवा लड़की से मुहब्बत के इशारे किया करता। यहाँ तक कि अभागी ललिता उसके जाल में आ फँसी। भाग जाने के मंसूबे हुए।

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