कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
केशव - तेरे सिर में। देखती नहीं है, अंडों में से उजला-उजला पानी निकल आया है! वही तो दोचार दिन में बच्चे बन जाते।
माता ने सुई हाथ में लिए हुए पूछा - तुम दोनों वहाँ धूप में क्या कर रहे हो? श्यामा ने कहा - अम्माजी, चिड़िया के अंडे टूटे पड़े हैं।
माता ने आ कर टूटे हुए अंडों को देखा और गुस्से से बोली - तुम लोगों ने अंडों को छुआ होगा।
अबकी श्यामा को भैया पर जरा भी दया न आई - उसी ने शायद अंडों को इस तरह रख दिया कि वे नीचे गिर पड़े, इसका उसे दंड मिलना चाहिए। बोली - इन्हीं ने अंडों को छेड़ा था अम्माजी।
माता ने केशव से पूछा- क्यों रे?
केशव भीगी बिल्ली बना खड़ा रहा।
माता - तो वहाँ पहुँचा कैसे?
श्यामा - चौकी पर स्टूल रख कर चढ़े थे अम्माजी।
माता - इसीलिए तुम दोनों दोपहर को निकले थे।
श्यामा - यही ऊपर चढ़े थे अम्माजी।
केशव - तू स्टूल थामे नहीं खड़ी थी।
श्याम - तुम्हीं ने तो कहा था।
माता - तू इतना बड़ा हुआ, तुझे अभी इतना भी नहीं मालूम कि छूने से चिडियों के अंडे गंदे हो जाते हैं - चिड़ियाँ फिर उन्हें नहीं सेतीं।
श्यामा ने डरते-डरते पूछा - तो क्या इसीलिए चिड़िया ने अंडे गिरा दिए हैं अम्माजी?
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