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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


माता - और क्या करती। केशव के सिर इसका पाप पड़ेगा। हाँ-हाँ तीन जाने ले ली दुष्ट ने!

केशव रुआँसा होकर बोला - मैंने तो केवल अंडों को गद्दी पर रख दिया था अम्माजी!

माता को हँसी आ गई।

मगर केशव को कई दिनों तक अपनी भूल पर पश्चात्ताप होता रहा। अंडों की रक्षा करने के भ्रम में, उसने उनका सर्वनाश कर डाला था। इसे याद करके वह कभी-कभी रो पड़ता था।

दोनों चिड़ियाँ वहाँ फिर न दिखाई दीं!

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4. रसिक संपादक

'नवरस' के संपादक पं. चोखेलाल शर्मा की धर्मपत्नी का जब से देहांत हुआ है, आपको स्त्रियों से विशेष अनुराग हो गया है और रसिकता की मात्रा भी कुछ बढ़ गयी है। पुरुषों के अच्छे-अच्छे लेख रद्दी में डाल दिये जाते हैं; पर देवियों के लेख कैसे भी हों, तुरंत स्वीकार कर लिये जाते हैं और बहुधा लेख की रसीद के साथ लेख की प्रशंसा कुछ इन शब्दों में की जाती है- आपका लेख पढ़कर दिल थामकर रह गया, अतीत जीवन आँखों के सामने मूर्तिमान हो गया, अथवा आपके भाव साहित्य-सागर के उज्जवल रत्न हैं, जिनकी चमक कभी कम न होगी। और कविताएँ तो हृदय की हिलोरें, विश्व-वीणा की अमर तान, अनंत की मधुर वेदना, निशा का नीरव गान होती थीं। प्रशंसा के साथ दर्शन की उत्कट अभिलाषा भी प्रकट की जाती थी। यदि आप कभी इधर से गुजरें तो मुझे न भूलिएगा। जिसने ऐसी कविता की सृष्टि की है, उसके दर्शन का सौभाग्य मुझे मिला, तो अपने को धन्य मानूँगा।

लेखिकाएँ अनुरागमय प्रोत्साहन से भरे हुए पत्र पाकर फूली न समातीं। जो लेख अभागे भिक्षुक की भाँति कितने ही पत्र-पत्रिकाओं के द्वार से निराश लौट आये थे, उनका यहाँ इतना आदर! पहली बार ही ऐसा संपादक जन्मा है, जो गुणों का पारखी है। और सभी संपादक अहंमन्य हैं, अपने आगे किसी को समझते ही नहीं हैं। जरा-सी संपादकी क्या मिल गयी मानो कोई राज्य मिल गया। संपादकों को कहीं सरकारी पद मिल जाय तो अंधेर मचा दें। वह तो कहो कि सरकार इन्हें पूछती नहीं। उसने बहुत अच्छा किया जो आर्डिनेन्स पास कर दिये। और स्त्रियों से द्वेष करो। यह उसी का दंड है। यह भी संपादक ही हैं, कोई घास नहीं छीलते और संपादक भी एक जगत्-विख्यात पत्र के। 'नवरस' सब पत्रों में राजा है।

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