कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
|
6 पाठकों को प्रिय 428 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
उसने अपना उखड़ा हुआ पाँव जमाते हुए कहा- यह तो बहुत अच्छी बात होगी। आप शौक से आएँ। सेवाश्रम की दशा तो आपको मालूम होगी?
‘मैं इस इरादे से यहाँ नहीं आयी हूँ।’
‘यह मैं पहले ही समझ गया था। मेरी यह आशा न थी। यों ही कह दिया। अच्छा, आपका मकान यहीं है?
मंजुला देवी का घर लखनऊ में है। जालन्धर के कन्या-विद्यालय में शिक्षा पायी है। अंग्रेजी में अच्छी लियाकत है। घर के काम-धन्धे में भी कुशल हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि उनके हृदय में सेवा का उत्साह है। अगर ऐसी स्त्री सेवाश्रम का भार अपने ऊपर ले ले, तो क्या कहना!
मगर विमल के मन में एक प्रश्न उठा। पूछा- आपके पति भी आपके साथ रहेंगे?
साधारण-सा सवाल था; मगर मंजुला को नागवार लगा। बोली- जी नहीं। वह अपने घर रहेंगे। वह एक बैंक में नौकर हैं और अच्छा वेतन पाते हैं।
विमल के मन का प्रश्न और भी जटिल हो गया। जो आदमी अच्छा वेतन पाता है, उसकी पत्नी क्यों उससे अलग, काशी में रहना चाहती है?
केवल इतना मुँह से निकला- अच्छा!
मंजुला ने शायद उनके मन का भाव ताडक़र कहा- आपको यह कुछ अनोखी-सी बात लगती होगी, लेकिन क्या आपके ख्याल में शादी का आशय यह है कि स्त्री को पुरुष के दामन में छिपी रहना चाहिए?
विमल ने जोश के साथ कहा- ‘हर्गिज नहीं।’
‘जब मैं अपनी जरूरतों को घटाकर सिफ़र तक पहुँचा सकती हूँ, तो किसी पर भार क्यों बनूँ?’
‘बेशक!’
|