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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


‘हम दोनों में मतभेद है और उसके अनेक कारण हैं। मैं भक्ति और पूजा को मानव जीवन का सत्य समझती हूँ। वह इसे लचर समझते हैं, यहाँ तक कि ईश्वर में भी उनका विश्वास नहीं है। मैं हिन्दू संस्कृति को सबसे ऊँचा समझती हूँ। उन्हें हमारी संस्कृति में ऐब-ही-ऐब नजर आते हैं। ऐसे आदमी के साथ मेरा निबाह कैसे हो सकता है।’

विमल खुद भक्ति और पूजा को ढोंग समझते थे, और इतनी सी बात पर किसी स्त्री का पुरुष से अलग हो जाना उनकी समझ में न आया। उन्हें ऐसी कई मिसालें याद थीं, जहाँ स्त्रियों ने पति के विधर्मी हो जाने पर भी अपने व्रत का पालन किया। इस समस्या का व्यावहारिक अंग ही उनके सामने था। पूछा- उन्हें कोई आपत्ति तो न होगी?

मंजुला ने गर्व के साथ कहा- मैं ऐसी आपत्तियों की परवाह नहीं करती। अगर पुरुष स्वतन्त्र है, तो स्त्री भी स्वतन्त्र है।

फिर उसने नर्म होकर करुण स्वर में कहा- यों कहिए कि हम और वह तीन साल से अलग हैं। रहते हैं एक ही मकान में; लेकिन बोलते नहीं। जब कभी वह बीमार पड़े हैं, मैंने उनकी तीमारदारी की है। उन पर कोई संकट आया है, तो मैंने उनसे सच्ची सहानुभूति की है; लेकिन मैं मर भी जाऊँ तो उन्हें दु:ख न होगा। वह खुश ही होंगे कि गला छूट गया। वह मेरा पालन-पोषण करते हैं, इसलिए ......

उसका गला भर आया था। एक क्षण तक वह चुपचाप जमीन की ओर ताकती रही। फिर उसे भय हुआ कि कहीं विमल उसे हलका और ओछी न समझ रहा हो, जो अपने जीवन के गुप्त रहस्यों का ढिंढोरा पीटती फिरती है। इस भ्रम को विमल के मन से निकालना जरूरी था। उसने उन्हें यकीन दिलाया कि आज तक किसी ने उसके मुँह से ये शब्द नहीं सुने, यहाँ तक कि उसने अपने मन की व्यथा कभी अपनी माता से भी नहीं कही। विमल वह पहले व्यक्ति हैं जिनसे उसने ये बातें कहने का साहस किया है और इसका कारण यही है कि वह जानती है; उनके दिल में दर्द है और एक स्त्री की विवशता का अन्दाजा कर सकते हैं।

विमल ने लजाते हुए कहा- यह आपकी कृपा है, जो मेरे बारे में ऐसा खयाल करती हैं।

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