कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
उसने अपनी तीव्र दृष्टि में देख लिया है कि विमल उसकी कारगुजारियों से सन्तुष्ट नहीं है। फिर वह उससे शिकायत क्यों नहीं करता, उससे जवाब क्यों नहीं माँगता? उसी तीव्र दृष्टि से उसने यह भी ताड़ लिया है कि विमल उसके रूप-रंग से अप्रभावित नहीं है। फिर यह शीतलता और उदासीनता क्यों? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह कपटी या कायर है? औरों से वह कितना खुलकर मिलता है, कितनी हमदर्दी से पेश आता है, तो मंजुला से वह क्यों दूर-दूर रहता है? क्यों उससे ऊपरी मन से बातें करता है? वह पहले दिन का निष्कपट व्यवहार कहाँ गया? क्या वह यह दिखाना चाहता है कि मंजुला की उसे बिलकुल परवा नहीं है या उससे केवल इसलिए नाराज है कि धनियों की चौखट पर सिर नहीं झुकाती? यह खुशामद उसे मुबारक रहे। मंजुला सेवा करेगी; पर अपने आत्माभिमान को अछूता रखकर।
एक दिन प्रात:काल मंजुला बगीचे में टहल रही थी कि विमल ने आकर उसे प्रणाम किया और उसे सूचना दी कि सेवाश्रम का वार्षिकोत्सव निकट आ रहा है। उसके लिए तैयारी करनी चाहिए।
मंजुला ने उदासीन भाव से पूछा- यह जलसा तो हर साल ही होता है।
विमल ने कहा- जी हाँ, हर साल; मगर अबकी ज्यादा समारोह से करने का विचार है।
‘मेरे किये जो कुछ हो सकता है, वह मैं भी करूँगी, हालाँकि आप जानते हैं, मैं इस विषय में ज्यादा निपुण नहीं हूँ।’
‘इसकी सफलता का सारा भार आप ही के ऊपर है।’
‘मेरे ऊपर?’
‘जी हाँ, आप चाहें तो यह आश्रम कहीं-से-कहीं पहुँच जाए’
‘मेरे विषय में आपका अनुमान ग़लत है।’
विमल ने विश्वास-भरे स्वर में कहा- मेरा अनुमान गलत है या आपका अनुमान गलत है; यह तो जल्द ही मालूम हुआ जाता है।
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