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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


आज यह पहली प्रेरणा थी, जो विमल ने मंजुला से की। जिस दिन से उसने सेवाश्रम उसके हाथ में सौंपा था, उस दिन से कभी इस विषय में कोई आदेश न दिया था। उसे कभी इसका साहस ही न हुआ। मुलाकातों में इधर-उधर की बातें होकर रह जातीं। शायद विमल समझता था कि मंजुला ने जो त्याग किया है, वह काफी से ज्यादा है। और उस पर अब और बोझ डालना जुल्म होगा। या शायद वह देख रहा था कि मंजुला का मन इस संस्था में रम जाए तो कुछ कहे। आज जो उसने विनय और आग्रह से भरा हुआ यह आदेश दिया तो मंजुला में एक नई स्फूर्ति दौड़ गयी। सेवाश्रम से ऐसा निजत्व उसे कभी न हुआ था। विमल से उसे जो दुर्भावनाएँ थीं, सब जैसे काई की तरह फट गईं और वह पूर्ण तन्मयता के साथ तैयारियों में लग गयी। अब तक वह क्यों आश्रम से इतनी उदासीन थी इस पर उसे आश्चर्य होने लगा। एक सप्ताह तक वह रात-दिन मेहमानों के आदर-सत्कार में व्यस्त रही। खाने तक की फुरसत न मिलती। दोपहर का खाना तीसरे पहर मिलता। कोई मेहमान किसी गाड़ी से आता, कोई किसी गाड़ी से। अक्सर उसे रात को भी स्टेशन जाना पड़ता। उस पर तरह-तरह के करतबों का रिहर्सल भी कराना पड़ता। अपने भाषण की तैयारी अलग। इस साधना का पुरस्कार तो मिला, कि जलसा हर एक दृष्टि से सफल रहा और कई हज़ार की रकम चन्दे में मिल गयी। मगर जिस दिन मेहमान रुखसत हुए उसी दिन मंजुला को नये मेहमान का स्वागत करना पड़ा, जिसने तीन दिन तक उसे सिर न उठाने दिया। ऐसा बुखार उसे कभी न आया था। तीन ही दिन में ऐसी हो गयी, जैसे बरसों की बीमार हो।

विमल भी दौड़-धूप में लगा हुआ था। पहले तो कई दिन पण्डाल बनवाने और मेहमानों की दावत का इन्तजाम करने में लगा रहा। जलसा खत्म हो जाने पर जहाँ-जहाँ से जो सामान आये थे उन्हें सहेज-सहेजकर लौटाने की पड़ गयी। मंजुला को धन्यवाद देने भी न आ सका, किसी ने कहा जरूर कि देवी जी बीमार हैं, मगर उसने समझा, थकान से कुछ हरारत हो आयी होगी, ज्यादा परवा न की। लेकिन चौथे दिन खबर मिली कि बुखार अभी तक नहीं उतरा और बड़े जोर का हैं, तो वह बदहवास दौड़ा हुआ आया और अपराधी-भाव से उसके सामने खड़ा होकर बोला- अब कैसी तबीयत है? आपने मुझे बुला क्यों न लिया?

मंजुला को ऐसा जान पड़ा कि जैसे एकाएक बुखार हल्का हो गया है। सिर का दर्द भी कुछ शान्त हुआ जान पड़ा। लेटे-लेटे विवश आँखों से ताकती हुई बोली- बैठ जाइए, आप खड़े क्यों हैं? फिर मुझे भी उठना पड़ेगा।

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