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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


सराफ का नाम माधोदास था। बोला- कहिए मीर साहब, कुछ दिखाऊँ?

सौदागर- सोने का क्या निर्ख है?

माधो- (सौदागर के कान के पास मुँह ले जाकर) निर्ख को कुछ न पूछिए? आज करीब एक महीने से बाजार का निर्ख बिगड़ा हुआ है। माल बाजार में आता ही नहीं। लोग दबाए हुए हैं; बाजारों में खौफ के मारे नहीं लाते। अगर आपको ज्यादा माल दरकार हो, तो मेरे साथ गरीब खाने तक तकलीफ कीजिए। जैसा माल चाहिए, लीजिए। निर्ख मुनासिब ही होगा इसका इतमीनान रखिए।

सौदागर- आजकल बाजार का निर्ख क्यों बिगड़ा हुआ है?

माधो- क्या आप हाल ही में वारिद हुए हैं?

सौदागर- हाँ, मैं आज ही आया हूँ। कहीं पहले की-सी रौनक नहीं नजर आती। कपड़े का बाजार भी सुस्त है। ढाके का एक कीमती थान बहुत तलाश करने पर भी नहीं मिला।

माधो- इसके बड़े किस्से हैं; कुछ ऐसा ही मुआमला है।

सौदागर- डाकुओं का जोर तो नहीं है? पहले तो यहाँ इस किस्म की वारदातें नहीं होती थीं।

माधोदास- अब वह कैफियत नहीं है। दिन दहाड़े डाके पड़ते हैं। उन्हें कोतवाल क्या, बादशाह सलामत भी गिरफ्तार नहीं कर सकते। अब और क्या कहूँ। दीवार के भी सभी कान होते हैं। कहीं कोई सुन ले, तो लेने के देने पड़ जायँ।

सौदागर- सेठजी, आप तो पहेलियाँ बुझाने लगे। मैं परदेशी आदमी हूँ; यहाँ किससे कहने जाऊँगा। आखिर बात क्या है? बाजार क्यों इतना बिगड़ा हुआ है? नाज की मंडी की तरफ गया, तो वहाँ भी सन्नाटा छाया हुआ था। मोटी जिंस दूने दामों पर बिक रही थी।

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