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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


माधो- (इधर-उधर चौकन्नी आँखों से देखकर) एक महीना हुआ, रोशनुद्दौला के हाथ में स्याम-सफेद करने का अख्तियार आ गया है। यह सब उन्हीं की बद-इंतजामी का फल है। उनके पहले राणा बख्तावरसिंह हमारे मालिक थे। उनके वक्त में किसी की मजाल न थी कि कोई व्यापारियों को टेढ़ी आँख से देख सकता। उनका रोब सभी पर छाया हुआ था। फिरंगियों पर उनकी कड़ी निगाह रहती। हुक्म था कि कोई फिरंगी बाजार में आवे, तो थाने का सिपाही उनकी देख-भाल करता रहे। इसी वजह से फिरंगी उनसे जला करते थे। आखिर सबने रोशनुद्दौला को मिलाकर बख्तावरसिंह को बेकसूर कैद करा दिया। बस, तब से बाजार में लूट मची हुई है। सरकारी अमले लूटते हैं; फिरंगी अलग नोचते-खसोटते हैं। जो चीज चाहते हैं, उठा ले जाते हैं दाम माँगो, तो धमकियाँ देते हैं। शाही दरबार में फरियाद करो, तो उलटे सजा होती है। अभी हाल ही में सब मिलकर बादशाह सलामत की खिदमत में हाजिर हुए थे। पहले तो वह बहुत ही नाराज हुए, पर आखिर रहम आ गया। बादशाहों का मिजाज ही तो है। हमारी सब शिकायतें सुनीं, और तसकीन दी कि तहकीकात करेंगे। मगर अभी तक तो वही लूट-खसोट जारी है।

इतने में तीन आदमी राजपूती ढंग की मिर्जई पहने, आकर दूकान के सामने खड़े हो गए। माधोदास उनका रंग-ढंग देखकर चौंका। शाही फौज के सिपाही बहुधा इसी सज-धज से निकलते थे। तीनों आदमी भी सौदागर को देख कर ठिठके; पर उसने उन्हें कुछ ऐसी निगाहों से देखा कि तीनों आगे चले गए। तब सौदागर ने माधोदास से पूछा- इन्हें देखकर तुम क्यों चौके?

माधोदास ने कहा- ये फौज के सिपाही हैं। जब से राजा बख्ताबरसिंह नजर बन्द हुए हैं, इन पर किसी की दाब ही नहीं रही। खुले साँड़ की तरह बाजारों में चक्कर लगाया करते हैं। सरकार से तलब मिलने का कुछ ठीक तो है नहीं। बस नोच-खसोट करके गुजर करते हैं। हाँ, तो फिर अगर मरजी हो, तो मेरे साथ घर तक चलिए, आपको माल दिखाऊँ।

सौदागर- नहीं भई, इस वक्त नहीं; सुबह आऊँगा। देर हो गई है, और मुझे भी यहाँ की हालत देखकर खौफ मालूम होने लगा है।

यह कहकर सौदागर उसी तरफ चला गया, जिधर वे तीनों राजपूत गये थे। थोड़ी देर में और तीन आदमी सराफे में आये। एक तो पंडितों की तरह नीची चपकन पहने हुए था; सिर पर गोल पगिया थी, और कंधे पर जरी के काम का शाल। उसके दोनों साथी खिदमतगारों के-से कपड़े पहने हुए थे, तीनों इस तरह इधर-उधर ताक रहे थे, मानो किसी को खोज रहे हों। यों ताकते हुए तीनों आगे चले गए।

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