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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


ईरानी सौदागर तीव्र नेत्रों से इधर-उधर देखता हुआ एक मील चला गया। वहाँ एक छोटा-सा बाग था। एक पुरानी मस्जिद भी थी। सौदागर वहाँ ठहर गया। एकाएक तीनों राजपूत मस्जिद से बाहर निकल आये और बोले- हुजूर तो बहुत देर तक सराफ की दूकान पर बैठे रहे। क्या बातें हुईं?

सौदागर ने अभी जवाब न दिया था कि पीछे से पंडित और उनके दोनों खिदमतगार भी आ पहुँचे। सौदागर ने पंडित को देखते ही भर्त्सनापूर्ण शब्दों में कहा- मियाँ रोशनुद्दौला, मुझे इस वक्त तुम्हारे ऊपर इतना गुस्सा आ रहा है कि तुम्हें कुत्तों से नुचवा दूँ! नमकहराम कहीं का! दगाबाज!! तूने मेरी सल्तनत को तबाह कर दिया! सारा शहर तेरे जुल्म का रोना रो रहा है! मुझे आज मालूम हुआ की तूने क्यों राजा बख्तावरसिंह को कैद कराया। मेरी अक्ल पर न जाने क्यों पत्थर पड़ गये थे कि मैं तेरी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया। इस नमकहरामी की तुझे वह सजा दूँगा कि देखने वाले को भी इबरत (शिक्षा) हो।

रोशनुद्दौला ने निर्भीकता से उत्तर दिया- आप मेरे बादशाह हैं, इसलिए आपका अदब करता हूँ, वर्ना इसी वक्त बद-जबानी का मजा चखा देता। खुद आप तो महल में हसीनों के साथ ऐश किया करते हैं, दूसरों को क्या गरज पड़ी है कि सल्तनत की फिक्र से दुबले हो। खूब, हम अपना खून जलावें और आप जशन मनावें। ऐसे अहमक कहीं और रहते होंगे!

बादशाह (कोध से काँपते हुए)- मि॰... मैं तुम्हें हुक्म देता हूँ कि इस नमक हराम को अभी गोली मार दो। मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता; और इसी वक्त जाकर इसकी सारी जायदात जब्त कर लो। इसके खानदान का एक बच्चा भी जिंदा न रहने पावे।

रोशनुद्दौला- मि॰... मैं तुमको हुक्म देता हूँ कि इस मुल्क और कौम के दुश्मन, रैयत-कातिल और बदकार आदमी को फौरन गिरफ्तार कर लो। यह इस काबिल नहीं कि ताज और तख्त का मालिक बने।

इतना सुनते ही पाँचों अँगरेज-मुसाहबों ने जो भेष बदले हुए साथ थे, बादशाह के दोनों हाथ पकड़ लिए और खींचते हुए गोमती की तरफ ले चले। बादशाह की आँखें खुल गईं। समझ गए कि पहले ही से यह षड्यंत्र रचा गया था। इधर-उधर देखा, कोई आदमी नहीं। शोर मचाना व्यर्थ था। बादशाही का नशा उतर गया। दुरवस्था वह परीक्षाग्नि है, जो मुलम्मे और रोगन को उतारकर मनुष्य का यथार्थ रूप दिखा देती है। ऐसे ही अवसरों पर विदित होता है कि मानव-हृदय पर कृतिम भावों का कितना गहरारंग चढ़ा होता है। एक क्षण में बादशाह की उद्दंडता और घमंड ने दीनता और विनयशीलता का आश्रय लिया। बोले- मैंने तो आप लोगों की मरजी के खिलाफ ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसकी यह सजा मिले। मैंने आप लोगों को हमेशा अपना दोस्त समझा है।

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